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________________ देवगढ़ पुरातत्त्व को संभाल ज्ञात होता है कि तब तक अर्थात् १०वी-११वी सदी तक सुरक्षा हेतु प्रयत्न क्यिा, फल स्वरूप इस क्षेत्रका काफी यह धारणा प्रामाणिक थी कि भारतवर्ष १० ऋषभदेव के विकास और सुधार हुआ। परमपूज्य श्रदेय प्राचार्य विद्यापुष भरत के नाम पर ही विख्यात था, न कि दुष्यन्त सागर जी महाराज ने यहां तुर्मास की स्थापना कर सोने शकुन्तला के पुत्र भरत पर। यह त्रितीर्थी प्रतिमा चौकोर मे सुहागे का कार्य किया फलत: यहां जीर्णोद्धार का कार्य है और लगभग दो मीटर लबी चौड़ी होगी। देखें मारुति- द्रुतगति से चला और आज यह क्षेत्र पूर्णतया दर्शनीय एवं नंदन तिवारी कृत "जैन प्रतिमा विज्ञान" नामक ग्रथ का पूजनीय बन गया है फिर भी और बहुत सा कार्य बाकी है, ७०वां चित्र जिसमें बाहुवली और ऋषभदेव का चित्र अभी जगह जगह मूर्तियां पड़ी है, कुछ खण्डित हैं उन सब मन्दिर में स्थानाभाव के कारण नही आ सका। को यथावत् प्रतिष्ठित करना है। फिर भी अब तक जो दूसरी त्रितीर्थ है भ० नेमिनाथ की जिसके आस पास कुछ हो गया है उसे देखकर बड़ा सन्तोष और प्रसन्नता दोनों ओर कृष्ण और बलराम की मूर्तिया अकित है देखो हुई। डा. बाहुबली जी इस दिशा में अत्यधिक प्रयत्नउपर्युक्त ग्रंथ का २७वां चित्र । यहां के मन्दिरो के तोरण- शील है। द्वार जिस तरह विभिन्न लताओं, फूलों, बेलबूटो एव पर यहा पुगतस्व और इतिहास के साथ जो खिल. घंटा घडिपानों में कहे व देखते ही बनत है । मान. वाह और छेड़छाड़ हो रही है उसे देखकर बड़ी पीड़ा हुई। स्तंभों को किन कलात्मक ढगो से सजाया सवारा है कि कुछ विद्वानो या मुनिजनों के बादेश उपदेश से यहां की देखते ही आखे अश्रुपूरित हो पुलकित हो उठती है। मन मूतियों में फेर बदल और हेरा फेरी हो रही है। जैसे कि मे ऐसी भावना उत्पन्न होती है कि काश वे शिल्पी आज कुन्दकुन्द की गाथाओ को लोग मनमाने ढंग से तोड़ मरोड़ मिल जावें तो उनके हाथ और छनी हथौड़े चम लिये जा रहे है उसी तरह यहां प्राचीन मूर्तियों में बिह्न उकेरे जा जिन्होंने देवगढ को ऐसा गरिमामय एव सौन्दर्यपूर्ण शिल्प रहे है जब कि मूल रूप से ऐसा कुछ नहीं है। इससे भावी प्रदान किया है । काल के प्रभाव से तथा हजारों वर्षों की पुगत वनिदो को अनेकों प्रान्तियों का सामना करना सर्दी, गर्मी, बरसात ने एवं आततायियों के क्रूर आक्रमणो पड़ेगा। कुछ मूर्तियों को एकत्रित कर बीबीस की संख्या के कारण देवगढ़ का कला वैभव ध्वस्त एवं नष्ट-भ्रष्ट हो मे स्थापित कर उन भूतकाल की चौबीसी का मन्दिर बना गया था जिससे पिछली कई सदियो तक देवगढ उपेक्षित दिया गया है हर वेदी पर भूतकाल के प्रत्येक तीर्थकर का पड़ा रहा किसी को स्वप्न में भी खबर न थी कि यह प्रदेण नाम भी लिख दिया है यहां तक तो ठीक है पर उन कभी कला की दृष्टि से इतना वैभव सम्पन्न रहा होगा। मतियों पर भी उन तीर्थंकरों के नाम उकेर दिये हैं जो भारतीय पुरातत्व के पितामह जनरल कनिंघम ने सर्वथा अनुचित है, ऐसा ही स्थिति भविष्यत् काल की उन्नीसवी सदी के उत्तरार्ध में अन्य स्थानो की खोज की चौबीसी के मन्दिर की कर डाली है। जबकि इन भूत भांति जब देवगढ़ को खोज निकाला तो इसके कला वैभव भविष्यत् चोबीसियो मे एक रूपता या समानता नहीं है को देखकर उनकी बाछे खिल उठी और इसके महत्व को और ना ही इनका कोई पुरातात्विक या ऐतिहासिक उन्होंने अपनी सर्वे रिपोर्ट मे उल्लेख किया फिर भी जैन अस्तिस्त्र उपलब्ध होता है। इस तरह की पुरातात्विक समाज कुम्भकर्णी निद्रा में सोता रहा । अभी विगत तीस धोखाधड़ी और हेरा फेरी कालान्तर में जैन पुरातत्व को सालों मे स्व० साहू शान्तिप्रसाद जी का ध्यान इस ओर बहत धातक सिद्ध होगी और हमारी एतिहासिक प्रमागया और उन्होंने देवगढ़ के जैन शिल्प से प्रभावित हो णिकता पर प्रश्न चिह्न लग जावेंगे अतः इम दुष्प्रवृति को इसके जीर्णोद्धार हेतु स्वोपार्जित विपुल धनराशि दान मे तुरन्त ही रोका जाय । दी, यहाँ एक म्यूजियम स्थापित कराया तथा केन्द्रिय देवगढ़ का प्राचीनतम नाम इतिहास और पुरातात्विक शासन का इस क्षेत्र को पर्यटन स्थल बनाने हेतु ध्यान लुअच्छगिरि के नाम से विख्यात था। जब११वी सदी में भाषित किया तथा भारतीय पुरातत्व विभाग से इसको चन्देल नरेश श्री कीर्तिवर्मा का शामन बाया तो देवगढ़
SR No.538044
Book TitleAnekant 1991 Book 44 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1991
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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