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________________ २०, वर्ष ४४, कि० ३ अनेकान्त कोतिनगर नाम से विख्यात हुआ जिसका उल्लख भ० कि यहा को पुरातात्विक संपदा में किसी भी तरह की शान्तिनाथ के मन्दिर के सामने स्थित विशाल शिला छेड़छाड़ या फेर बदल न करें जो जिस स्थिति में है उसी स्तम्भ पर उत्कीर्ण है। इसके बाद इसका नाम देवगढ़ स्थिति में रहने दें।" हा, जो खण्डित मूर्तियां हैं और उनके कब और कैस पड़ा इस विषय में इतिहास और पुरातत्व नाक कान हाथ पर आदि का जीर्णोधार करना है तो वह सर्वथा मोन है। लगता है देव प्रतिमाओ को बहुलता के किसी विख्यात पुरातत्वविद् के निर्देशन मे ही किया जाय, ही कारण इसका नाम देवगढ़ पड़ गया हो जो अब तक पागम ग्रंथों में फेर बदल को भाति इनमें मनमाने ढंग से तक चला आ रहा है। यहां स. १४८१ म विरूपात धन- अला ज्ञानवश किसी तरह का खिलवाड़ न किया जावे। श्रेष्ठी मिघई होलीचन्द्र नाम से एक प्रमित धर्मनिष्ठ श्रद्धेय आचार्य विद्यासागर जी महाराज से निवेदन करुगा श्रावक हुए थे जिन्होने अपने गुरु आ वायं पदमनदी ओर कि जिस वट वृक्ष का उन्होंने पुष्पित एव पल्लवित किया उनको गुरु परम्परा के प्रथम संस्थापक आचार्य वसन्तकीर्ति है और ऐसा सुन्दर सलोना स्वरूप प्रदान कराया है उसे की प्रतिमाएं स्थापित कराई थी जो काल प्रभाव के कारण आन्तरिक रूप से दूषित एव विषाक्त और अप्रमाणित होने आज अनुपलब्ध है, पर इन सबका द्योतक एक विशाल से बचाने में अपने प्राशाव चना का प्रयोग कर जंन पुराशिलालेख कलकत्ता म्यूजियम में विद्यमान है, इसमे तत्व की रक्षा करें। समाज के विख्यात पुगतत्वविद् भी सस्कृत क ७५ श्लोक है। सिंघई हालीचन्द्र क सलाह. इस ओर ध्यान दे और ऐसे अप्रमाणिक कार्यो को न होने कार एव परम विद्वान मित्र श्री शुभसोम, धी गुणकीति । दिसबर जनवरी में शायद वहां पचकल्याणक प्रतिष्ठा श्री वर्लमान और श्री परपति नाम के चार सहायक थे या गजरथ चल दस अवसर पर यहां हुई इस पुरातत्व जिनके सत्परामर्श पर ही सवाचित होलीचन्द्र ने पर सबधी छेडछाड की समीक्षा हो तथा उसका निराकरण पुनीत कार्य किया था। यह विस्तृत शिलालेख एक ६ फूट किया किया लाव। लम्बे ३ फुट चौड़े तथा १-१/२ फुट मोटे विशाल शिला श्रुत-कुटीर, ६८ विश्वास मार्ग, खर पर उत्कीर्ण है। विश्वास नगर, शाहदरा दिल्ली "अंत मे देवगढ़ की प्रबंध समिति से निवेदन करूगा श्री नन्हें दास के दो आध्यात्मिक पद (१. राग रामकली) (२. राग गौरी) चलि पिय वाहि सरोवर जाहि । मन पछी उडि जैहें । जाहि सरोवर कमल, कमल रवि विन विगसाहिं। जा दिन मन पंछी उडि जैहे, अति हो मगन मधुकर रस पिय रगाह माहि समाहिचल. ता दिन तेरे तन तरुवर को नाम न कोक लेहें मन पहुप वास सुगध सीतल लेत पाप नसाहिं ॥ चल. फुटी पार नीर के निकसत, सूख कमल मुरझं। मन एक प्रफुल्लित सद दलनि मुख नहिं म्हिलाहिं ।। चल. कित गई पूरइन कित मई सोभा जित तित धुरि उहें मन, गुंजवारी बैठि तिन एव भमर हुई विरमाइ॥ चल. जो जो प्रीतम प्रीति कर है सोऊ देख डरैहैं ।। मन हस पछी सदा उझुल तेउ मलिमलि हा ।। चल. जा मदर सो प्रेत भये ते सब उठि उठि खेहे ॥ मन० अनगिनै मुक्ताफल मोती तेऊ चुनि चुनि खाई , चब. लोग कुटम सब लकड़ो का साथी आग कोउ न जैहें।। मन अचिरज एकजु छल छल समुझि लेऊ मन माहि ।। चल० दहरी लो मेहरी को नातो हस अकलो उड़ि हें ।। मन अब बिनि उड़ उदास 'नन्हें बहुरि उडिवो नाहि ।। चल. जा संसार रन का सपना कोउ काऊ न पतियहें ॥ मन. 'नन्हें दास' वास जगल का हस पयानो लैहें । मन पंछी. -बी कुम्बन लालन के सौजन्य से
SR No.538044
Book TitleAnekant 1991 Book 44 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1991
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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