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केवल उपादान को नियामक मानना एकान्तवाद है
पं० मुन्नालाल जैन प्रभाकर
निमिन उपादान की चर्चा न जाने कब मे चली आ दर्शाया है तथा इमी लेख मे कहा है 'पुद्गल कर्म अथवा रही है। खानिगा में अनेक विद्वानो के बीन भी चर्चा मोहनीय कर्म में भी संसारी आत्मा को रागद्वेष रूप परिणचली जिसके विषय में पं० फूलचन्द जी ने काफी प्रश्न मन करने में खिचाव की शक्ति है' ये दोनों बातें आगम के उपस्थित किये और इनका उत्तर पं० वशीधर जी व प्रतिकूल तो है ही परस्पर विरुद्ध भी है। रतनचंद जी मुक्तार मारब ने दिया परन्तु कोई ममाधान
कर्ता की परिभाषा समय सार कलश ५१ में अमृत नहीं हो सका और अब फिर एक पत्रिका से निमित्त कुछ
चन्द्राचार्य ने ' यः परिणमनि स कर्ता इत्यादि' की है । नही है जो कुछ होता है वह उपादान से ही होता है।
इस कथ। स जीव तथा पुदर दोनो ही कर्ता हैं। क्योंकि इस लेख को पढकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि आखिर समा
दोनो ही परिणमन करते है। तथा समय सार गाथा घान न होने का कारण क्या है ? जिनकी धारणा बन गई
८०, ८१, ८२ मे स्पष्ट वताया है कि पुद्गल के परिणहै कि जो मैं जानता हूं वही सत्य है । जब तक इस धारणा
मन में (कर्म रूप) जीव निमित्त है उसी प्रकार जीव को एक तरफ करके ठंडे दिम से दूसरे के विचारों
भी जिसको पुद्गल कर्म निमित्त है (राग द्वेष रूप) को न सुनेंगे न देखेंगे और न गहराई से विचार करेंगे
परिणमन कर है तथा जैन सिद्धान्तप्रवेशिका में उपातब तक वस्तु का सत्य स्वरूप समझ में नही आ
दान तथा निमित्त दोनो को कारण कहा है। जो पदार्थ सकता जैसा मोक्ष मार्ग प्रकाश पृष्ठ २१ मे कहा है कि
कार्य रूप परिणमन करता है उपको उपादान कारण तथा जिस जीव का भला होनहार है उसके ऐसा विचार आये
जो उसमे सहायक होता है उसको निमित्त कारण कहा है मैं कौन हं यह संसार का परिच केमे बन रहा है ऐसे है। जीव तथा पदगल दोनों उपादान भी है और निमित्त विचार से उद्यम वंत भया अति प्रीति कर शास्त्र सुने है. भी। जब जीव कार्य रूप परिणमन करता है तब वह किछ पूछना होय तो पूछे है बहुरि गुरुनि कर कहया अर्थ उपादान कारण कहलाता है और युद्गलकर्म निमित्त को अपने अन्तरगविषे बारम्बार विचारे है इस विचार से कारण कहलाता है। इसी प्रकार जब पुद्गल वर्गणायें बस्त का निर्णय हो है। यदि हम सच्चे, दिल से वस्तु के कर्म रूप पग्गिा मन करती हैं तब पुद्गल उपादान कारण स्वरूप का निर्णय करना चाहते है तो हमे आनी मान्यता तथा जीव के राग द्वेष भाव निमित्त कारण कहलाते हैं। का पक्ष न लेकर वस्तु के स्वरूप का बार-बार विचार मोंकि दोनो ही पदार्थं परिणमन शोल है इसलिए दोनों करना होगा। निमित्ताधीन दृष्टि शीर्षक लेख में बहुत से ही उपादान है और दोनो ही निमित्त है दोनों समान है प्रसंग तो पुराने हैं जिनके उतर विद्वानो द्वारा दिये जा कोई कमजोर और बलवान नही है न एक द्रव्य दूसरे चके हैं ज. मोटर पेट्रोल से नहीं चलती, स्त्री रोग होने द्रव्य का जोगवरी से कर्ना है इसके लिए समय सार मे निमित्त कारण नही आदि। कुछ प्रसंग विचारणीय है गाथा ८० देखिए इसमें दोनों को एक दूसरे का निमित्त उन पर विचार करते है-(१) लेख में कहा है निमित्त कारण बताया है। और जो यह कथन है कि 'पुद्गल का न", कराता नहीं निमित्त से होता नहीं परन्तु कर्म (मोहनीय) में संसारी आत्मा को रागद्वेष रूप जिसका अवलम्बन लेकर हम कार्य करते है वह निमित्त परिणमन करने की खिचाव शक्ति ज्यादा है ऐसा नाम पाता है। यहां पर निमित्त को कुछ नहीं है ऐसा मानना जरूरी है क्योंकि सम्यग्द्रष्टी आरमा मामायिक