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आगमिक ज्ञान-कण -ज्ञानी की ऐसी बुद्धि है कि जिसका संयोग जुआ उसका रियोग अवश्य होगा इसगिए विनाशीक में प्रीति नहीं करनी।
X -जानने में और करने में परस्पर विरोध है । ज्ञाता रहेगा तो बन्ध न होगा यदि कर्ता होगा तो अवश्य बन्ध होगा।
- ज्ञान से बांध नहीं होता अज्ञान मे बन्ध होता है। अविरत सम्यग्दृष्टि का पर का स्वामीपना छट गया है चारित्रमोहनीयरूपी विकार होता है मोई बन्ध भी होता है मगर वह अनन्त ससार का कारण नही है कोंकि स्वामीपना छूटने से अनन्त ससार छट गया।
X -आचार्य कहते हैं कि शुद्ध द्रव्याथिक नय की दृष्टि तो मैं शुद्ध चतन्य मात्र मति है। परन्तु मी परिणति मोहकम के उदय का निमित्त पाकर मैली है—राग-द्वेष रूप हो रही है।
-द्रव्य कर्म भावकम और नोकर्म आदि पुद्गल द्रव्यो मे अपनी कल्पना करन को मकल्प और ज्ञको के भेद से ज्ञान में भेदों को प्रतीनि कोविकल्प कहते है।
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-पर-द्रव्य मे आत्मा का विकला करता है वह तो अज्ञानी है। और अपने आत्मा कोही ना मानता है वह ज्ञानी है।
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-सर्वज्ञ ने ऐसा देखा है कि जड और चेन द्रव्य ये दोनो सर्वथा पृथक है कदाचित् किसी प्रकार से भी एक रूप नहीं होते।
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-जब तक पर-वस्तु को भूलकर अपनी जानता है तब तक ही ममत्व रहता है और जब यथार्थ ज्ञान हो जाने से पर को पराई जाने, तब दूसरे की वस्तु से ममत्व नहीं रहता।
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कषाय के उदय से होने वाली मिथ्या प्रवृत्ति को असयम कहते है।
X -सम्यक्त्व तथा चारित्र के घातक का उदय सर्वथा थम जाने पर जो स्वभाव प्रकट होते है, उन्हें ओपमिक कहते है।
X - इच्छा है वह परिग्रह है जिसमें इच्छा नही है उसके परिग्रह नही है।
(श्री शान्तिलाल जैन कागजी के सौजन्य से)
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कागज प्राप्ति .---श्रीमतो अंगरी देवी जैन (धर्मपत्नी श्री शान्तिलाल जैन कागजी) नई दिल्ली- के साजन्य से