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________________ अपरिग्रही ही आत्मदर्शन का अधिकारी दिगम्बराचार्य कुन्दकुन्द आदि ने जिनवाणी के रहस्यो को खोला ओर अध्यात्म का उपदेश दिया और यह सब उनके पूर्ण अपरिग्रही होने से ही सम्भव हो सका । क्योंकि परिग्रही - रागी, द्वेषी मे ऐसी सामर्थ्य ही नहीं कि वह वस्तुतस्व का पूरा सही-सही विवेचन कर सके। यह बात आत्म-तत्त्व के विवेचन मे तो और भी आवश्यक है। भला, जिसे आत्मानुभव न हो यह उसके स्वरूप का दिग्दर्शन कैसे करा पाएगा? फिर, जैनदर्शन में तो आत्मा को रूप, रस, गंध स्पर्शं रहित - अदृश्य बताया है, उसको पकड़ बाह्य इन्द्रियो और राग-द्वेषी व परिग्रही मन से भी सर्वथा असम्भव है । आत्म-स्वरूप तो वीतरागता मे ही प्राप्त हो पाता है । इसलिए हमारे तीर्थंकर आदि महापुरुषों ने पहिले वीतरागी होने का उद्यम किया-दृश्य संसार से मोह को छोड़ा और दृश्य संसार से मोह के छोड़ने के लिए पहिने बारह भावनाओ के द्वारा अपने में वैराग्य समा लेने का प्रयत्न किया । अतीत लम्बे काल से उक्त क्रम मे विपरीतपना समा बैठा है— लोग राग-द्वेषादिपरिग्रह के त्याग के बिना अन्तरंग और बहिरंग परियो को समेटे हुए, अरूपी आत्मा को पहिचानने पहिचनवाने की रट लगाए हुए स्वयं भ्रमित हैं और दूसरो को भ्रमित कर सांसारिक सुखसुविधाओं के जुटाने मे मग्न है और लोग भी आत्मदर्शन के बहाने विषयों में मग्न है। इस कारण जैन का जो ह्रास किसी लम्बे काल में संभावित था वह जल्दी-जल्दी हो रहा है । थोड़े वर्षों में ही इस आत्म-दर्शन के विपरीत मार्ग ने आभ्यन्तर और बाह्य दोनो प्रकार के जैनत्व को रसातल में पहुंचा दियान खुदा ही मिला न विसा सनम, न इधर के रहे न उधर के रहे।" इन्हें आत्मा तो मिली ही नही इनका चारित्र भी स्वाहा हो गया। लोग चिल्ला रहे है-आज जेनी, जंनी नही रहा। जैनियों में दो दर्जे मुख्य हैं - एक श्रावक का और दूसरा मुनि का और ये दोनों ही मुख्यतः चारित्र के आधार पर निर्भर हैं । सो लोगो ने उस चारित्र की तो उपेक्षा कर दो जो चारित्र त्यागरूप और आत्म-स्वरूप की प्राप्ति पद्मचन्द्र शास्त्री संपादक 'अनेकान्त' का आधार है । यदि चारित्र की मुख्यता न होती तो उक्त दोनों दर्जे का विधान भी न हुआ होता। सभी इस बात को बखूबी जानते हैं कि उक्त दोनों दर्ज न तो कोरे सम्यम्दर्शन की अपेक्षा से हैं और ना ही कोरे सम्यग्ज्ञान की अपेक्षा से है । खेद है कि लोगो ने विपरीत मार्ग पकड़ चारित्र के बिना ही आत्म-दर्शन के गीत गाने शुरू कर दिए । जब कि यह पता ही नही लग पाता कि सम्यग्दर्शन किसे है और किसे नहीं ? आत्मदर्शन किसे हुआ, किसे नही । हाँ, यह अवश्य हुआ कि लोग बाह्य चारित्र को दियाला मानने के प्रति अधिक जागरुक हुए उन्होने रागादि विकारों के हटाने की बात प्रारम्भ की पर रागादि हटाने के बजाय वे स्वयं उनमें अधिक लिप्त होते गए। यहाँ तक कि उन्होंने आत्मा की बात करते हुए परिग्रह सचय का मार्ग अपना लिया बहुत से आत्मदर्शन की बात करने वाले फूटी कौड़ी के धनी भी पोर परिग्रही बन गए हों, तब भी आश्चर्य नहीं। जब कि आत्मदर्शन में मिध्यात्व व बाह्य परिग्रह की निवृत्ति जरूरी है। इस प्रकार कुन्दकुन्द की दृष्टि में जो आत्म-धर्म अपरिग्रह रूप था वह इनके परिग्रह-संचय का व्यापार बन गया । कहा जाने लगा कि जब तक अंतरग भावना न हो बाह्याचार कोरा दिखाया है पर प्रश्न होता है कि क्या अन्तर की प्रेरणा के अनुसार बाह्य प्रवृत्ति नहीं होती ? बाह्य करनी में अन्तर प्रेरणा प्रमुख है— चाहे वह सरल वृत्ति मे हो या कुटिल - मायाचार रूप हो । हाँ, इतना अवश्य है कि सरल-वृत्ति शुभ और कुटिल अशुभरूप होती है । ऐसी स्थिति मे भी जो शुभ-अशुभ दोनों को हय कहा गया है वह शुद्ध की अपेक्षा से कहा गया है और वह सर्वथा अपरिषद् वृत्ति में कहा गया है। जबकि आज परिग्रहियों मे शुभ और अशुभ दोनो से निवृत्ति - ( वह भी परिग्रह को बढ़ाते हुए) की चर्चा चल पड़ी है यानी कीचड़ में पैर बाते हुए कोई शुद्ध होने की बात कर रहा हो। यही कारण है कि आज का जैन नामधारी अन्तरंग और बहिरंग दोनों प्रकार के चारित्र से हीन हो गया है और जिसकी पिता समाज मे व्याप्त हो गई है।
SR No.538044
Book TitleAnekant 1991 Book 44 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1991
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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