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________________ १०, बर्ष ४, कि०२ अनेकान्त ७. परदारादोष-वर्णन" : स्वामी होकर भी परस्त्री हरण के पाप से राजा रावण सातवे व्यसन के रूप में वसूनन्दि ने परस्त्री का हरण अपने पूरे कुल के साथ मर कर नरक को गया"। करना या उसके तरफ अभिलषित होने से प्राप्तदोष का इस प्रकार वसनन्दि सातों व्यसनो का संक्षेप में वर्णन वर्णन करते हुए लिखा है कि-जो निर्बुद्धि पुरुष परायी करते हुए कहते है, कि जो व्यक्ति सातों ही व्यसनों का स्त्री को देखकर उसको प्राप्त करने का इच्छुक होता है, सेवन करता है, उसके दु.खो का वर्णन नही किया जा वह उसके द्वारा पाता तो कुछ नही है, बल्कि पाप को ही सकता । साकेत नगर में रुद्रदत्त सातो ही व्यसनो का सेवन बटोरता है। करके मरकर नरक गया और फिर दीर्घकाल तक संसार जब वह परस्त्री को नही पाता, तो इधर-उधर में भ्रमता फिग"। विलाप करता हुमा, गाता हुआ भटकता है। वह व्यक्ति वसुनन्दि ने सातों व्यसनों के उदाहरण के रूप मे यह नहीं सोचता है कि परायी स्त्री भी मुझे चाहती है या प्रत्येक व्यसन के पारपरिक उदाहरण प्रस्तुत किये हैं। नही? केवल उसको प्राप्त करने की चिन्ता में हमेशा द्यूतदोष मे राजा युधिष्ठिर का, मद्यदोष में यादवों का, इबा रहता है। ऐसे पुरुष का कहीं भी मन नहीं लगता। मांसदोष में गद्धवक राक्षस का, वेश्यागमन मे चारुदत्त का, उसे मीठा भोजन भी नही रुचता। विरह मे संतप्त रहता पारविदोष में ब्रह्लदत्त का, चोर्य में श्रीभूति का और परहै। उसे नींद भी नही आती। नाना प्रकार के कष्टो को दाराहरणदोष गे रावण का वर्णन किया है। ये सभी सहते हुए इस ससार-समुद्र के भीतर भ्रमण करता है। उदाहरण आचीन प्राकृत तथा संस्कृत वाङ्मय मे भी इसलिए परिगहीत या अपरिगहीत परस्त्रियों का मन, प्राप्त होते हैं। वचन, काय से त्याग करना चाहिए । श्रावकाचार के अध्ययन की दृष्टि से तथा मानव परस्तान मे वसुनन्दि ने रावण का उदाहरण कल्याण की दृष्टि से व्यसन मुक्ति के सन्दर्भ में यह अध्ययन दिया है। विचक्षण, अर्धचक्रवर्ती और विद्याधरो का महत्वपूर्ण एवं उपयोगी होगा। सन्दर्भ-सूची १. जूयं खेलंतस्स है कोहो माया य माण लोहा य । पिविऊण जुण्ण मज्ज णछा ते जादवा तेण ॥ एए हवंति तिव्वा पावइ पावं तदो वहुगं ।।६० वसु. भा. १२६ पाबेण तेजर-मरण-वीचिपउरम्मि दुक्खमलिलम्मि। ५. मसासणेण वड्ढह दपो दप्पेण मज्जमहिलसइ । चंडगइममणावतम्मि हिंडइ भवसमुद्दम्मि वसू. श्रा.६१ जूय पि रम इ तो तपि वपिणए पाउणइ दोषे ।। वसु० श्रा०८६ २. रज्जट मंस वसणं बारह संवच्छराणि वणवासी। ६. मसासणेण गिद्धो वगरक्खो एगचक्कणयरम्म । पत्तो तहावमाण जूएण जुहिहिलो गया । रज्जाओ पढमटठो अयसेण मुओ गमओ णरय ।। वसु० श्रा० १२५ ७. कारुय किशय-चंडाल-डोब-पारघियाण मुच्छिट्ठ । ३. मज्जेण जरी अवसो कुणेइ कम्मागिग बिदणिज्जाइ । रो भक्खेइ जो सह वमइ एयरति पि वेस्साए । इहलोए परलोए अणुहवइ अणंतय दुक्खं ॥ ___वसु० श्रा० गाथा संख्या ८८ वसु० श्रा०१२५८. सव्वत्थ णिकुणबुद्धी वेसासंगेण चारुदत्तो पि। ख इऊरण घणं पत्तो दुक्खं परदेशगमणं च ।। पावेण तेण बहुतो जाइ-जरा-मरणसावयाइण्णे । वसु. श्रा० १२८ पाइ अणंतदुक्ख पडिमो ससारकंतारे ॥ ६. सम्मतस्स पडाणो अणुकंवा वण्णिओ गुणो जम्हा । वसु० था. ७८ पारद्धिरमणसीलो सम्मतविराहपो तम्हा ।। ४. उज्जाम्मि रमता तिसाभिभूया जलं ति णाखण। बसु० श्रा०६४
SR No.538044
Book TitleAnekant 1991 Book 44 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1991
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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