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________________ तस्वार्थवातिक में प्रयुक्त प्रन्य इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः पर मनः । असख्येयाः प्रदेशाः धर्माधम कजीवानाम् । मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धे: परतरो हि सः ॥ भग० ३१४२) लोकाकाशेऽवगाहः । अर्थात् इन्द्रियों पर हैं। इन्द्रियों से भी परे मन है। उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्" । मन से भी परे बुद्धि है और बुद्धि से परे आत्मा है। तत्त्वार्थाधिगममाष्य-तत्त्वार्थाधिगम भाष्यकार इस प्रकार इन्द्रियों की अपेक्षा न होने से अवधिज्ञान द्वारा स्वीकृत पाठ की अकलङ्कदेव ने कही-कहीं आलोको परोक्ष नही कह सकते । इन्द्रियों को ही पर कहा चना की है। कही-कही भाष्य मे सूत्र रूप से कही गई जाता है। कई पंक्तियो का विस्तृत व्याख्यान राजवातिक मे पाया सांख्यकारिका-तत्त्वार्थवातिक के प्रथम अध्याय के जाता है। बन्धेऽधिको पारिणामिको (त.सू. ५॥३७) के प्रथम सूत्र की व्याख्या मे सांख्यकारिका को चवालिसवी __ स्थान पर भाष्यकार ने 'बन्धे समाधिको पारिणामिको' कारिका के 'विपर्ययाद् बन्ध:' अश को उद्धृत किया गया कहा है। अकलङ्कदेव ने इति अपरे सूत्र पठन्ति के निर्देश है। पूरी कारिका इस प्रकार है के साथ इस पाठ की समालोचना की है । बन्धे समाधिको धर्मणगमन मूवं गमनमधस्ताद्भवत्यधर्मेण । परिणामिको' का तात्पर्य है कि द्विगुण स्निग्ध का द्विगुण ज्ञानेन चापवर्गो विपर्ययादिष्यत बन्धः ॥ रूप भी परिणामक (परिणमन कराने वाला) है। आप प्रथम अध्याय के प्रथम सूत्र के ४३वें वार्तिक में उप- मे विरोध होने से यह पाठ उपयुक्त नही है। ऐसा मानने युक्त कारिका की विस्तृत व्याख्या की गई है। आगे पर सैद्धान्तिक विरोध आता है। क्योकि वर्गणा मे बन्धविस्तृत रूप से ज्ञान मात्र से मोक्ष होता है, इसका खण्डन विधान के नोआगम बन्धविकल्प.सादि वससिक बन्धनिर्देश किया गया है। मे कहा गया है कि 'विषम स्निग्धता' और विषम रूक्षता तत्त्वार्थ सूत्र-तत्त्वार्थ वार्तिक की समस्त रचना में भेद होता है। इसके अनुसार ही 'गुणसाम्ये सदृशाना' तत्त्वार्थसूत्र के सूत्रो की व्याख्या के रूप में की गई है। यह सूत्र कहा गया है। इस सूत्र से जब समगुण वालो के अतः क्रमिक रूप से सूत्रों का उल्लेख हुआ है। इसके बन्ध का प्रतिषेध (निषेध) कर दिया है, तब बन्ध में 'सम' अतिरिक्त व्याख्या के बीच-बीच में कहीं तत्त्वार्थसूत्र के सूत्र भी पारिणामिक होता है, यह कथन आर्षविरोधी है, अतः उद्धृत किए गए हैं । उदाहरणार्थ कुछ सूत्र इस प्रकार हैं- विद्वानों के द्वारा ग्राह्य नहीं है। (क्रमशः) सन्दर्भ सूची १. 'कृत्रिमाकृत्रिमयोः कृत्रिमे संप्रत्ययो भवतीतिलोके' ३३. ॥१८१, ३४. ४१६२, ३५. ४।२018, काव्याख्यान पा० म० १११२२, तत्त्वार्थवातिक ३६.४४।२०१६, ३७. ४।२११४, ३८. ४॥२१॥५, शश२६ ३६. ४।२१।५, ४०. ५१०१, ४१. ५।१।२७, २. तत्त्वार्थवातिक १।३।१२, ३. १।५।२८, ४. १।६।१ ४२. ५।२।२, ४३. ६।१२, ४४. ६।४।८, ४५. ६।८१७ ५. वही २।२।१, ६. २।२।१, ७. २०२।१, ६. २।८।१, शश, ६. रारा ७.स . सदा ४६.६।१२।३, ४६१ ४ ४७.८।३।१, ० ४८, ६११३, ६, ४१४३, १०. २११४१४, ११. २।१८।४, १२. ३११८१४ ४६. ६।१।१३, ५०. १।१२।१५, ५१. ५।२४१५ १३.३।२१२, १४. ४॥२२१,१५. ५११६, १६. शराः ५२. षण्णामतातरातीतं विज्ञान वितामतः । १७.४१७११६, १८, ५।२६।५, १६. ११४, श१२।११ मे उष्वत । २०.११२५, २१. ११११११, २२. ११११११, ५३. तस्वार्थवातिक ११२।११, ५४.५।१८।११, २३. १।१३।१, २४. २०३८।१, २५. २।३८१, २६.३.१६।३,२७.४।३।३, २८. ४।३।३ २६.१४॥२, ५८, वही ॥१२॥४-१० ३०. ४१४३, ३१. ४.१२१७, ३२. ४१२७, (शेष पृ० ११ पर)
SR No.538044
Book TitleAnekant 1991 Book 44 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1991
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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