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________________ प्राचार्य करकंद के प्रयों को पाण्डुलिपियों का सर्वेक्षण टिप्पणों का भी मूल में समावेश हो गया है। इससे यह सर्वेक्षण आवश्यक है, जिससे मूल प्रतियों की खोज की ज्ञात करना मुश्किल हो गया है कि मूलपाठ कौन है? जा सके । इसके अतिरिक्त व्याकरणप्रिय तथाकथित विद्वानों ने मूल इस प्रकार क बृहद् आयोजनों के लिए, बौद्धिकवर्ग पाठ के साथ छेड़खानी करके व्याकरण सम्मत शब्दरूपों का सहयोग तो अपेक्षित है। विश्वविद्यालय अनुदान का जामा पहिनाकर अमानत में खमानत कर डाली है। आयोग जैसी केन्द्रीय संस्थाओं के सहयोग से यह कार्य इस परिवर्तन से होने वाली हानियों की ओर उनका सहज सम्भव है। इसके लिए विश्वविद्यालयीय विद्वानों ध्यान नहीं गया । यह खेद का विषय है। एवं विश्वविद्याय अनुदान आयोग-दोनो को और से आज हिन्दुओ के प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद एवं जनों प्रथम पदन्यास हो चुका है। इस क्रम मे सम्पूर्णानन्द जैनो की एक परम्परा द्वारा स्वीकृत आवाराङ्गकी विश्वविद्यालय, वाराणसी के प्राकृत एव जैनागम विभागाप्राचीनता उनकी भाषा के कारण ही सिद्ध की जाती है। ध्यक्ष डा. गोकुलचन्द जैन के निर्देशन मे आचार्य कुन्दकुन्द आधुनिक युग में भाषा ही एक मात्र ऐसा मापदण्ड है जो के एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ नियमसार का समालोचनात्मक ग्रन्थों की प्राचीनता अथवा अर्वाचीनता को सिद्ध कर सम्पादन डा० ऋषभचन्द्र जैन फोजरार ने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की एक योजना के अन्तर्गत प्रारम्भ कर सकता है। दिया है। किसी भी भाषा का व्याकरण तद्विषयक उपलब्ध विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने मेरे द्वारा प्रस्तावित साहिम में प्रयुक्त शब्दरूपों के आधार पर किया जाता एक योजना को भी स्वीकृति दी है, जिसका विषय हैहै। अर्थात् पहले उस भाषा का साहित्य होता है और "आचार्य कुन्दकुन्द के प्राकृत-ग्रन्थों की प्राचीन पाण्डुलिबाद में उस भाषा का व्याकरण । यही कारण कि मूल पियों का सर्वेक्षण ।" योजना को प्रस्तावित करने में मुझे साहित्य मे कुछ ऐसे शब्दों का भी प्रयोग मिलता है, जो डा० गोकुलचन्द्र जैन का सहयोग मिला है। इस योजना के अर्वाचीन व्याकरण के नियमो से मेल नहीं खाता है। ऐसे अन्तर्गत आचार्य कुन्दकुन्द के समस्त हस्तलिखित एव प्रयोगों/शब्दरूपों को वैयाकरणों द्वारा व्याकरण के नियमों प्रकाशित ग्रन्थों की प्राचीन पाण्डुलिपियो की विस्तृत सूची में न बांध पाने के कारण उन्हे आर्ष प्रयोग के नाम से तैयार की जायेगी। क्योंकि प्राचीन ग्रन्थो को प्रकाश में सम्बोधित किया है। ऐसे भाषागत परिवर्तनों से ऐति लाने के लिए सर्वेक्षण कार्यों का अत्यधिक महत्त्व है। हासिक तथ्यों एवं प्राचीन संस्कृति का विनाश होगा। इसलिए प्रस्तुत योजना के माध्यम से आचार्य कुन्दकुन्द के जिसे इतिहास कभी क्षमा नहीं करेगा। वर्तमान में ज्ञात तेइस प्राकृत-ग्रन्थों तथा उनकी उपलब्ध आज आवश्यकता इस बात की है कि एक-एक टीकाओं की प्राचीन पाण्डुलिपियों की जानकारी एक साथ आचार्य के समस्त ग्रन्थों का समालोचनात्मक सम्पादन प्राप्त हो सकेगी। वर्तमान में आचार्य कन्दकुन्द के छपे देश-विदेश में उपलब्ध पाण्डुलिपियो के आधार पर किया ग्रन्थों में प्राचीन पाण्डुलिपियों का समुचित उपयोग न होने जाये। सम्पादन की इस प्रक्रिया में मल में किसी भी से सम्पादन विशेषज्ञ मनीषी प्रो० ए० एन० उपाध्ये ने प्रकार की विकृति न आये इस बात को ध्यान में रखते उक्त छपे हुए ग्रन्थों को मुद्रित पाण्डुलिपियाँ कहा है तथा हुए सम्पादन के विश्वजनीन मापदण्डो को अपनाना होगा। समालोचनात्मक संस्करण तैयार करने की आवश्यकता पर उपर्युक्त प्रकार का मौलिक एव प्रामाणिक सम्पादन अत्यधिक बल दिया है। किसी व्यक्ति विशेष द्वारा सम्भव नही है। इस सम्पादन आचार्य कुन्दकन्द के ग्रन्थो को देश-विदेश में उपलब्ध प्रक्रिया को मूर्तरूप देने के लिए अनेक विद्वानों का एक समस्त प्राचीन पाण्डुलियो के सूचीकरण से आचार्य कुन्दसाथ सहयोग अपेक्षित है। यह एक टीमवर्क है। इस कार्य कुन्द अथवा उनके ग्रन्थों पर कार्य कर रहे अनुसन्धान हेतु सर्वप्रथम देश-विदेश के प्राचीनतम ग्रन्थ-भण्डारो का (शेष पृ० १४ पर)
SR No.538044
Book TitleAnekant 1991 Book 44 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1991
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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