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नियमसारका विशिष्ट संस्करण प्रस्तावित
डॉ० ऋषभचन्द्र जैन फौजदार
विद्यावारिधि की उपाधि प्रदान की है। उनके प्रयत्नों से विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने विभिन्न योजनाएं स्वीकृत की है। राष्ट्रीय और अन्तराष्ट्रीय स्तर पर कुन्दकुन्दविषयक अनुसंधान कार्य आरम्भ हो रहे हैं।
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आचार्य कुन्दकुन्द भगवान् महावीर की श्रमण-परंपरा के ज्योतिर्धर आचार्य है उनके उपलब्ध प्राकृत प्रन्थों में श्रमण परम्परा का सांस्कृतिक इतिहास सुरक्षित है । भाषाविज्ञान की दृष्टि से प्राकृत भाषाओं के विविध रूप इन ग्रन्थों में उपलब्ध हैं ।
विगत वर्षों मे आचार्य कुन्दकुन्द की ओर जैन समाज का ध्यान विशेष रूप से गया है। उनके नाम पर संस्थाएं बनीं हैं। ग्रंथों के प्रकाशन हुए हैं । साहित्य और प्रचारप्रसार की सामग्री प्रकाशित हुई है। दिगम्बर जैन समाज की ओर से आचार्य कुन्दकुन्द द्विसहस्राब्दि समारोह मनाने के भी अनेक आयोजन हुए इस सबके बाद भी किसी भी सामाजिक संस्था की ओर से आचार्य कुन्दकुन्द विषयक उच्च अनुसन्धान और उनके प्राकृत ग्रन्थों के शुद्ध ओर प्रामाणिक संस्करण प्रकाशित करने की योजना प्रकाश में नहीं आयी । अब तक जो भी सस्करण प्रकाशित हुए हैं,
प्रायः पूर्व प्रकाशनों के पुनर्मुद्रण मात्र है। मूल प्राकृत पाठ नये संस्करणो मे शुद्ध होने की अपेक्षा और अधिक त्रुटिपूर्ण होता गया है । एक भी ग्रन्थ में शब्द-कोश नहीं है । यही कारण है कि प्राकृत के प्रसिद्ध विद्वान स्व० डा० ए० एन० उपाध्ये ने इन सस्करणो को "मुद्रित पाण्डु लिपिया" (प्रिन्टेड मेनुस्क्रप्टस) कहा है । जीवन के अन्तिम क्षण तक के कुकुन्द के प्रामाणिक सस्करणों की बात कहते रहे।
आचार्य कुन्दकुन्द विषयक उच्च अध्ययन अनुसन्धान को विगत वर्षों मे प्राकृत एवं जैन विद्या के वरिष्ट विद्वान डा० गोकुलचन्द्र जैन ने एक नयी दिशा दी है। प्रामाणिक सस्करणो की बात को उन्होने अनेक प्रसंगों पर उठाया है। कुकुन्दादि वर्ष में उनके निर्देशन मे नियमसार तथा पर संस्कृत विश्वविद्यान वाराणसी ने दो युवा विद्वान मुझे तथा डा० महेन्द्रकुमार जैन को
भारत तथा विदेशों में आचार्य कुन्दकुन्द के प्राकृत ग्रन्थो की शताधिक प्रतियाँ उपलब्ध है । अभी तक इनके सर्वेक्षण का प्रयत्न नही हुआ । विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की एक योजना के अन्तर्गत यह बहु प्रतीक्षित कार्य अब आरम्भ हो गया है । डा० कमलेशकुमार जैन प्राध्यापक जैन दर्शन, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय यह महत्वपूर्ण कार्य कर रहे है।
नियमसार पर अनुसन्धान कार्य करते समायरमे ध्यान उसके अशुद्ध और त्रुटिपूर्ण प्राकृत पाठ पर गया । मूल प्राकृत पाठ अशुद्ध होने से उसका हिन्दी और अंग्रेजी अनुवाद भी अनेक स्थलो पर त्रुटिपूर्ण है । अशुद्ध पाठ के आधार पर भाषावैज्ञानिक अध्ययन कथमपि संभव नही है। डा० गोकुलचन्द्र जैन मुझे मेरे अनुसन्धान काल से ही नियमसार का एक शुद्ध और विशिष्ट संस्करण तैयार करने के लिए प्रेरित करते रहे हैं। सोभाग्य से इनके निर्देशन में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने नियमसार के सम्पादन की योजना स्वीकृत कर ली। उसके अनुसार सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी के प्राकृत एवं जैनागम विभाग में विभाग के अध्यक्ष डा० गोकुलचन्द्र जैन के निर्देशन में मैंने कार्य आ-म्भ कर दिया है। इस कार्य में उन सभी का सहयोग वांछनीय है, जो आचार्य कुन्दकुन्द के प्रति श्रद्धा भाव रखने है तथा जिनकी उभ्य अनुसन्धान मे कथि है
नियमसार लगभग इस शताब्दी के आरम्भ में प्रकाश में आया । उस समय जाखि । प्रतियां उपलब्ध हुई उनके आधार पर इस प्रकाशन भी किया गया। इधर