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तत्वार्थवातिक में प्रयुक्त प्रन्य
कृकमिक सा" (जैने० ५/४/३४)
अभिधर्मकोश-अभिधर्मकोश (२०१७) में कहा अजायत्" (जैने० १॥३।६६)
गया है कि पाच इन्द्रिय और मानस ज्ञान में एक क्षण संख्यकाद्वीप्सायां" (जैने० ४।२।४८)
पूर्व का ज्ञान मन" है। ऐसे मन से होने वाले ज्ञान को साधनं कृताः बहुल" (जने० ११३।२६)
मानस प्रत्यक्ष कहते है । अकलङ्कदेब का कहना है कि वह स्त्रियांक्ति:" (जैने० २।१।७५)
अतीत असत् मन ज्ञान का कारण कैसे हो सकता है ? अष्टाध्यायी-अकलङ्कदेव ने कर्तुरीपिसक्तम् कर्म" यदि पूर्व का नाश और उत्तर की उत्पत्ति को एक साथ (पाणिनि ४४९) जैसे कुछ सूत्र पाणिनीय व्याकरण मानकर कार्य-कारण भाव की पल्पना की जाती है तो से उदधत किए उन्हीने 'गर्गाः शतंदण्ड्यताम्' जैसे कुछ विनाश और उत्पत्तिमान भिन्न सन्तानवर्ती क्षणों में भी उदाहरण दिए हैं। यह पाणिनि के कारक प्रकरण में कार्यकारणभाव मानना पड़ेगा। यदि एक सन्तानवर्ती 'गर्गाः शत दण्डयति' रूप में आया है। इन सबसे ज्ञात क्षणो में किसी शक्ति या योग्यता को स्वीकार करेंगे तो होता है कि उन्हें पाणिनीय व्याकरण की अच्छी जान- तो क्षणिकत्व की प्रतिज्ञा नष्ट हो जाती है ?" कारी थी?
अभिधर्मकोश में कहा गया है-'तत्राकाशमनावृतिः' वाक्पदीय-अकलदेव ने तत्त्वार्थवार्तेक मे (१५) अर्थात् प्रकाश नाम की कोई वस्तु नहीं है, केबल वाक्पदीय की एक कारिका उद्धृत की है--
आवरण का प्रभाव मात्र है ? अकलङ्कदेव ने इसका खण्डन शास्त्रेषु प्रक्रियाभेदरविद्येवोपवर्ण्यते ।
___करते हुए कहा है कि आकाश आवरण का अभावमात्र अन्नागमविकल्पा हि स्वय विद्या प्रवर्तते (वाक्पदीय नहीं है, अपितु वस्तुभूत है; क्योकि नाम के समान उसकी २।२३५)
सिद्धि होती है। जैसे नाम और वेदना आदि अमूर्त होने अन्य वैयाकरणो के समान वाक्पदी के रचयिता से अनावरण रूप होकर भी सत् है, ऐसा जाना जाता भतहरि स्फोटवाद को मानते है। स्फोटवाद के अनु- है। अन्यत्र 'षण्णा नन्तरातीत विज्ञान' यद्धि तन्मनः सार ध्वनियाँ क्षणिक है, वे क्रम से उत्पन्न होती हैं और (अभिकोश) को उद्धृत करते हुए अकलङ्कदेव ने उसके अनन्तर क्षरण में नष्ट हो जाती है ? वे जब अनन्तर क्षण प्रतिवाद मे कहा है कि मन का पृथक् अस्तित्व न मान में नष्ट हो जाती हैं, तब तो अपने स्वरूप का बोध कराने कर विज्ञान को मन कहना ठीक नहीं है क्योकि पूर्व ज्ञान में भी मीणशक्ति वाली हैं, अत. अर्थान्तर का ज्ञान कराने __ को जाने का उसमें सामर्थ्य नही है ? में वे समर्थ नहीं हैं ? यदि ध्वनिया अर्थान्तर का ज्ञान प्रमाण समुच्चय--अकलङ्कदेव न प्रत्यक्ष के लक्षण कराने में समर्थ होतीं तो पदो से पदार्थों के समान प्रति के प्रम में बौद्धसम्मत प्रत्यक्ष लक्षण हेतु प्रमाण समुच्चय वर्ण से अर्थ का ज्ञान होना चाहिए और एक वर्ण के द्वारा को इस रूप मे उदधत किया है ? अर्थबोध होने पर वर्णान्तर का उपादान निरर्थक होगा?
प्रत्यक्ष कल्पनापोढ नामजात्यादि योजना । क्रम से उत्पन्न होने वाली ध्वनियों का सहभाव रूप सघात
असाधारणहेतुत्वादक्षस्तद् व्यपदिष्यते ॥ भी संभव नही है, जिससे अर्थबोध हो सके। अत: उन
(प्रमाणसमुच्चय १।३।४) म्वनियों से अभिव्यक्त होने वाला, अर्थ के प्रतिपादन मे
इसके उत्तर मे अकलङ्कदेव ने कहा है क्या वह समर्थ, अमूर्त, नित्य, अतीन्द्रिय, निरवयव और निष्क्रिय
कल्पना पे सर्वथा रहित है अथवा कञ्चित् कल्पना से शम्बस्फोट स्वीकार करना चाहिए?
रहित है ? यदि सर्वथा कल्पनागढ प्रमाणज्ञान है तो आदि ___ अकलकूदेव ने स्फोटवाद का खण्डन किया है।
कल्पना से अपोढ है, इत्यादि बचन व्याघात होगा? यदि क्योंकि ध्वनि और स्फोट में व्यंग्य-व्यजक भाव नहीं है।" कञ्चित् कल्पना से रहित सिद्धान्त स्वीकार करते हो व्यंग्य-व्यंजक भाव कैसे नहीं है, इसका विस्तृत विवेचन तो एकान्तवाद का त्याग होने से पूनः स्ववचन व्याघात राजवातिक मे किया गया है।"