SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 135
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्यग्दर्शन के तीन रूप श्री मुन्नालाल जैन 'प्रभाकर' सम्यग्दर्शन की प्राप्ति का मूल कारण तत्त्वविचार है। विशेष वर्णन लब्धिसार ३ में देखें तथा मोक्षमार्ग प्रकाश तत्व विचार के अभ्यास के बल तें मिथ्यात्व कर्म के निषेकों पृ. ३१६ में तत्वविचार के विषय में कहा है देखो तत्वकी स्थिति अनुभाग शक्तिहीन होय है और हीन होते-२ विचार की महिमा। तत्वविचार विना देवादिक की प्रतीति कुछ निषेक आगामी काल में उदय आने योग्य सम्यग्- करें, बहुत शास्त्र अभ्यास, बहुत वत पाले, तपश्चरणावि मिथ्यात्व व सम्यग्प्रकृति रूप हो जाते हैं और कुछ निषेक भी करे तब भी सम्यक्त्व की प्राप्ति का अधिकारी नहीं है। बाद में उदय आने योग्य हो जाते हैं। उसी प्रकार सम्यग्- तथा तत्वविचार वाला इन सब क्रियाओं के बिना सम्यगमिथ्यात्व के कुछ निषेक भी सम्यकप्रकृति रूप हो जाते हैं दर्शन का अधिकारी हो हैं। इससे सिद्ध होता है कि कुछ सम्यग्मिथ्यात्वरूप में ही रहते हैं । ये सम्यमिथ्यात्व के सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिए तत्वविचार करना ही मुख्य निषेक तथा मिथ्यात्व के वो निषेक जिनको बाद में उदय कारण हो है, हो बहुत से जीव पहिले देवादिक की प्रतीति आने योग्य किये थे सत्ता में रहते हैं इनको सदवस्था रूप करें, शास्त्र अभ्यासें, व्रत पालें तथा तपश्चरण भी करें उपशम कहते हैं और जिन मिथ्यात्व तथा मिश्रमिध्यात्व और बाद में तत्वविचार करने लग जाएँ तो सम्यग्दर्शन के निषेकों को सम्यकप्रकृति रूप किये थे उनका स्वमुख से की प्राप्ति के अधिकारी हो जाते हैं क्योंकि तत्वविचार में उदय का अभाव होता है तथा परमुख सम्यकप्रकृति के उपयोग को लगाने से अंतरकरण के द्वारा विवक्षित को रूप में उदय आता है और निर्जरा हो जाती है जिससे की अधस्तन और उपरितन स्थितियो को छोड़ मध्यवर्ती मिथ्यात्व और सम्यगमिथ्यात्व के निषेक विना फल दिये अंतरमुहूर्त मात्र स्थितियों का परिणाम विशेष के द्वारा खिर जाते है । उसके बाद जब इन मिथ्यात्व सम्यग्मिथ्या- अभाव हो जाता है (मो. मा. पृ. ३२१)। स्व के निषेकों का उदय काल आता है तो इनका अभाव यह क्षयोपशम सम्यक्त्व चतुर्थ गुणस्थान में होता है होता है और सभ्य गप्रकृति का उदय रहता है । उस समय इस क्षयोपशम सम्यक्त्व का उत्कृष्ट काल ६६ हजार जो सम्यग्दर्शन होता है वह क्षयोपशम सम्यग्दर्शन कहा सागर है और यदि बीच में मिथ्यास्व प्रकृति का उदय मा भाता है। क्योंकि इसमे मिथ्यास्व के कुछ सर्वपाती निषेको आता है तो मिथ्यात्व में आ जाता है। क्योंकि मिथ्यात्व के का उपयाभावी क्षय हो गया, कुछ का सदवस्था रूप उप- निषेकों की सत्ता है और यदि सम्यमिथ्यात्व प्रकृति का शम है तथा इसी प्रकार सभ्यमिथ्यात्व के कुछ निषेक उदय आ जाता है तो तीसरे मिश्रगुणस्थान को प्राप्त हो सम्यकप्रकृति रूप होकर खिर गये उनका प्रभाव है और जाता है क्योंकि इसकी भी सत्ता है। इस अंतरमुहूर्त बाद कुछ निषेको का उपशम है तथा सम्बप्रकृति का उदय है चतुर्थ गुणस्थान को प्राप्त हो जाता है । ऐसी क्रिया होती इसलिए इस सम्यग्दर्शन को अयोपशम सम्यग्दर्शन कहते रहती है जब तक सम्यमिथ्यात्व वा मिथ्यात्व के निषेकों हैं। यह सब क्रिया अंतरकरण विधान ते (सत्वविचार में का क्षय नही होता। इस जीव का पुरुषार्थ तो सम्पग्दर्शन उपयोग लगाने से) अनिवृत्तिकरण के समय अपने आप को प्राप्ति के लिए तस्वविचार करना मात्र है। बाकी होती है। इस सम्यग्दर्शन मे सम्यकप्रकृति का उदय बना कार्य स्वयं होता रहता है जैसे अग्नि के संयोग से मक्खन रहता है परन्तु इसके उदय रहने से सम्यक्त्व की विराधना पिघल जाता है तथा सूर्य के प्रकाश के कारण से अंधकार नहीं होती चल, मल, अगाढ़ दोष लगते रहते हैं इसका नष्ट हो जाता है। अब सम्यक्त्व होने के पश्चात इस
SR No.538044
Book TitleAnekant 1991 Book 44 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1991
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy