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वर्तमान के संदर्भ में विचारणीय
0 पनचन्द्र शास्त्री संपादक 'अनेकान्त'
यह तो गर्व विदित है कि हम ऐमे स्थान पर बैठे हैं और दिगम्बर मुनियों, त्यगियों की चर्या का शास्त्रों में जहां से जैन शोध का मार्ग प्रशस्त हुआ, समीचीन धर्म- अवलोकन भी किया है । वे क्रमशः परिग्रह से रहित और शास्त्र-रत्नकरन्ड श्रावकाचार जै। आचार ग्रन्थ का । परिग्रह परिमाण में रहते हैं-आदर्श होते हैं । इसी प्रकार सपादन और मेरी-भावना जैसी कृति का निर्माण तथा धर्म प्रभावना मे अग्रसर विद्वान् भी परिग्रह तृष्णा के स्थान पागम ग्रन्यों के उद्धार का कार्य सपन्न होता रहा। हम पर परिग्रह-परिमाण और सतोष के सहारे धर्म की गाड़ी इन्ही माध्यमों के सहारे समाज को विविध संवोधन देते रहे को खीचते रहे। जैसे-श्री टोडरमल जी, मदासुख जी हैं । निःसन्देह, उन्हें किन्ही ने तध्यरूप में स्वीकार किया और बीते युग के निकटवर्ती गुरु गोपाल दास बरैया होगा और कुछ हममे रष्ट हुए होंगे-उनको तुष्टि का आदि। बरैया जी के विषय में तो श्री नाथूराम प्रेमी ने हमारे पास उपाय नही। हम 'हित मनोहारि च दुर्लभं लिखा है- "धर्म कार्यों के द्वारा आपने अपने जीवन मे वच.' का अनुसरण कर चलते रहे हैं-'कह दिया सौ बार कभी एक पैसा भी नही लिय।। यहां तक कि इसके कारण उनसे जो हमारे दिल में है।'हाँ, हम यह भी कहते आप अपने प्रेमियों को दुखी तक कर दिया करते थे। रहे है कि हमारा कोई आग्रह नही, ग्रहण करें या छोड़ पर, भेंट या विदाई तो क्या, एक दुपट्टा या कपड़े का दें। प्रस्तु,
टुकड़ा भी ग्रहण नहीं करते थे।"-जब कि आज के आज प्राय: सभी धर्म प्रेमी अनुभव कर रहे है कि अधिकांश पण्डित प्रायः इमके अपवाद हैं-बड़े वेतन पाने जैन की स्थिति दिनोदिन चिन्तनीय होती जा रही है। वाले तक पर्युषणादि में अच्छा पैसा लेते है-प्रतिष्ठा, जनता मे न वैसा दृढ श्रद्धान है, न बैसा ज्ञान और ना ही विवाह आदि सस्कारों की बात तो अलग। वसा चारित्र है जैसा लगभग ६० वर्ष पूर्व था। समाज
यह समाज का दुर्भाग्य रहा कि उक्त दोनो धाराएं मे तब धर्म की धुरी को थामने और वहन करने वाले दो
क्षीण होती गयी । ऐसा क्यों और किन कारणो से हुआ?
लोण होती गयी प्रमुख अग थे- त्यागी और विद्वान पण्डित । इन्हे श्रावकों
यह ऊहापोह और तत्तत्कालीन परिस्थितियो पर विचार का सहयोग रहता था और ये आगमानुसार प्रभावना मे करने से स्पष्ट हो सकेगा-उसमे मतभेद भी रहेंगे । अतः तत्पर थे-धर्म-धुरा को खीचते रहे। दुर्भाग्य से आज हम उस प्रसग में नहीं जाते हैं। इतना ही पर्याप्त है कि त्यागी तो हैं, पर त्यागी कम। पण्डित तो हैं विद्वान् कम। उक्त दोनों धाराओं का हास धर्माचार तथा धर्मज्ञान के ये हम इसलिए कह रहे हैं कि आज त्याग, राग से लिपटा पंग होने का कारण हुआ। यह विडम्बना ही है कि जा रहा है और पण्डिताई पैसे कमाने या गुजारे का पेशा जिन्होंने धर्म की प्रभावना की उनके हमसफर ही ह्रास में मात्र बनकर रह गई है-दो-चार अपवाद हुए तो क्या? कारण हए-बाड़ ने ही खेत पर धावा बोल दिया। ऐसे जब कि राग और पंसा दोनों ही धर्म नही, परिग्रह हैं में 'पल्लवग्राहि पाण्डित्यम्' ने धर्म के ज्ञानदान का वोडा और परिग्रह की बढ़वारी मे धर्म का विकास रुद्ध हो जाता उठाया और उसमें कई वर्ग सम्मिलित हर-कुछ नामहै-तीर्थकरादि महापुरुषों ने परिग्रह का सर्वथा त्याग धारी पण्डित, कुछ स्वाध्यायी तथा कुछ धनिक वर्ग भी। किया।
इस प्रकार धर्म की गाड़ी चलती-सी दिखती रही। लोगों हमने पूर्ववर्ती दिगम्बराचार्यों के जीवन भी पढ़े हैं ने संतोष किया-'एरण्डोऽपि दुमायते ।' पर, आचार