Book Title: Anekant 1991 Book 44 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 141
________________ काशी के प्राराम्य सुपारवनाथ एक माह के उपवास के साथ प्रायोपगमन सन्यास धारण भगवान् सुपार्श्वनाय को पूर्वाह्न काल में एक माह पूर्व किया था साधना के अनुसार स्वर्ग में उत्पन्न हुए थे। अनुराधा नक्षत्र मे ५०० मुनियों के साथ योगविवृत्ति इनके गुरू का नाम अरिन्दम था आप मध्यगवेयक स्वर्ग सम्मेद शिखर पर विराजमान हो गये। फाल्गुन कृष्ण से चयकर भरतक्षेत्र में उत्पन्न हुए थे। षष्ठी को मोक्षगामी हुए। इनकी मुख्य आर्यिका का नाम सुपार्श्वनाथ का जन्म ज्येष्ठ शुक्ल की द्वादशी को मीना था। इनके तीन लाख श्रावक, पाँच लाख धाविहुआ था। आपका जन्म विशाखा नक्षत्र में होने का योग काएँ, पनचावनवेह गणधर, तीन लाख ऋषि, दो हजार है। इनके चेत्यवक्षो की ऊंचाई इनके शरीर से बारहगनी तीस पूर्वधर, दो लाख चवालिस हजार नो सौ बीस शिक्षक, ऊंची मानी गयी है। आप सामान्य राजा थे। आपके नौ हजार अवधिज्ञानी, ग्यारह हजार तीन सौ केवली, शरीर का वर्ण प्रियग वृक्ष की मजरी के समूह के समान पन्द्रह हजार एक सौ पचास विक्रिया ऋषिधारी, नौ हजार हरित था। आपने राजा बनने के बाद दीक्षा धारण की छ: सौ विपुलमतिमन. पर्यय ज्ञानी, पाठ हजार वादी, थी। इनका कुमार काल पाच लाख पूर्व माना गया है। तीन लाख तीस हजार आपिकाएं थी। मुरूप गणधर का शरीर की ऊंचाई २०० धनुष या चार हाथ प्रमाण की थी। नाम बलदत्त था। मुख्य यक्ष का नाम विजय, यक्षिणी राज्य १४ लाख २० पूर्वाग किया है। पुरुषदत्ता थी। इनके अशोक वृक्ष का नाम शिरीष था। समवशरण भूमि नो योजन की थी। ___आपका दीक्षा कल्याणक जन्मभूमि मे मनाया गया था । ज्येष्ठ शुक्ला द्वादशी को वसन्तवन लक्ष्मीबास का इक्ष्वाकु प्रथमः प्रधान मुरगादादि प्रशस्तत्स्मरण हो जाने के कारण विशाखा नक्षत्र मे, अपराह्न स्तस्मादेव च सोमवश । यस्त्वन्य कुरुग्रादयः । काल मे, नगर के सेहेतुक वनमें जाकर एक हजार राजाओं अर्थात् सर्वप्रथम इक्ष्वाकु वश उत्पन्न हुआ फिर उसी के साथ दीक्षा धारण कर ली। आपका ६ वर्ष तक छमस्थ इक्ष्वाकुवश से सूर्यवश और चन्द्रवश उत्पन्न हुए। उसी काल चलता रहा। इनकी पालकी का नाम सुमनोरमा था समय कुरुवश तथा उग्रवश आदि अन्य अनेक वश प्रचलित इनने दीक्षा धारण करने के बाद दो दिन का उपवास किया, फिर नभक्त ने पारणा देकर गाय के दूध से बनी खीर का आहार दिया था। प्रथम पारणा के स्थान (१) पूर्वाह्न काल मे, अष्ट कमों को नष्ट करने वाले Tu मे दान देने ससार भ्रमण का अन्त करने वाले कायोत्सर्ग आसन का वाले का नाम महादत्त था। इनकी आदि पारणा में धारण जिनेन्द्र सुपार्श्वनाथ सिद्धि को प्राप्त हुए। इन नियम से रत्नवृष्टि उत्कृष्टता से साढ़े बारह करोड़ और एक माह पूर्व विहार करना बन्द कर दिया था। जघन्य रूप से साढ़े बारह लाख प्रमाण की होती थी। सभी गणधर सात ऋषियों से युक्त तथा समस्त आपके दानी पुरुष तपाये हुए सुवर्ण के समान कान्ति वाले शास्त्रों के पारगामी थे। वर्ण के थे। आपके दानी पुरुष तपश्चरण कर मोक्षगामी तीर्थङ्कर का संघ-(१) पूर्वधर (२) शिक्षक (३) हो गए थे। अवधिज्ञान (४) केवल ज्ञानी (५) वादी (६) विक्रय ऋषि फाल्गुन कृष्ण सप्तमी की वेला के बाद अपराह्न काल के धारक और (७) विपुलमत्ति मन: पर्यय के भेद से सात में सहेतुक वन मे विशाखा नक्षत्र में केवल ज्ञान हो गया प्रकार का होता है। था। इनका केवलि कान एक लाख पूर्व अट्ठाइस पूर्वाग नौ वर्ष माना गया है। 00

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