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मतांक से आगे:
कर्नाटक में जैन धर्म
0 श्री राजमल जैन, जनकपुरी
शिवकुमार द्वितीय संगोत (७७६-८१५ ई.) को अपने के रूप में सुरक्षित है। मारसिंह ने अपना अन्तिम समय जीवन में युद्ध और बन्दीगृह वा दु.ख भोगना पड़ा। फिर जानकर अपने गुरु अजितसेन भट्टारक के समीप तीन दिन भी उसने जैनधर्म की उन्नति के लिए कार्य किया। उसने का सल्लेखना व्रत धारण कर बंकापुर मे अपना शरीर भवणबेलगोल की चन्द्रगिरि पहाड़ी पर 'शिवमार बसदि' त्यागा था : उसने अनेक जैन मन्दिरों का निर्माण कराया का निर्माण कराया था, ऐसा वहां से प्राप्त एक लेख से __था। वह जितना धार्मिक था उतना ही शूर-बीर भी था। बात होता है । आचार्य विद्यानन्द उसके भी गुरु थे। उसने गुर्जर देश, मालवा, विध्यप्रदेश, वनकासि प्रादि
राचमल्ल सत्यवाक्य प्रथम (८१५.८५३ ई.) ने अपनी प्रदेशो को जीता था तथा 'गगसिंह', 'गगवज' जैसी उपाराजनीतिक स्थिति ठीक की। किन्तु उसने धर्म के लिए धियो के साथ-ही-साथ 'धर्म महाराजाधिराज' की उपाधि भी कार्य किया था। उसने चित्तर तालुक मे वल्लमल ग्रहण की थी। वह स्वय विद्वान था और विद्वानों एव पर्वत पर एक गुहा मन्दिर भी बनवाया था। सम्भवतः आचार्यों का आदर करता था। उसी के आचार्य गुरु आर्यनन्दि ने प्रसिद्ध 'ज्वालामालिनी राचमल्ल सत्यवाक्य चतुर्थ (९७४-६८४ ई.)-इस कल्प' की रचना की थी।
शासक ने अपने राज्य के प्रथम वर्ष में ही पेग्गूर ग्राम की सत्यवाक्य के उत्तराधिकारी एरेयगंग नीतिमार्ग बसदि के लिए इसी नाम का गांव दान में दिया और (८५३-८७० ई.) को कुडलूर के दानपत्र मे 'परमपूज्य पहले के दानों की पुष्टि की थी। अहंद्भट्टारक के चरण-कमलों का भ्रमर कहा गया है। राचमल्ल का नाम श्रवणबेलगोल की गोम्मटेश्वर इस राजा ने समाधिमरण किया था।
महामूर्ति के कारण भी इतिहास प्रसिद्ध हो गया है । इसी राचमल्ल सत्यवाक्य द्वितीय (८७०-६०७ ई.) पेन्ने राजा के मन्त्री एवं सेनापति चामुण्डराय ने गोम्मटेश्वर करंग नामक स्थान पर सत्यवाक्य जिनालय का निर्माण की मूर्ति का निर्माण कराया था। राजा ने उनके पराक्रम कराया था और विलियूर (वेलूर) क्षेत्र के बारह गांव और धार्मिक वृत्ति आदि गुणों से प्रसन्न होकर उन्हें 'राय' पान में दिये थे।
(राजा) की उपाधि से सम्मानित किया था। नीतिमार्ग द्वितीय (९०७-६१७ ई.) ने मुडहल्लि और उपर्युक्त नरेश के बाद, यह गंग साम्राज्य छिन्न-भिन्न तोरम के जैन मन्दिरों को दान दिया था । विमलचन्द्रा- होने लगा। किन्तु जो भी उत्तराधिकारी हुए वे जैनधर्मके चार्य उसके गुरु थे।
अनुयायी बने रहे। रक्कसगंग ने अपनी राजधानी तलकाड गंगनरेश नीतिमार्ग के बाद, चुतुग द्वितीय तथा मरुल- में एक जैन मन्दिर बनवाया था और विविध दान दिए थे। देव नामक दो राजाहए। ये दोनों भी परम जिनभक्त सन् १००४ ई. में चोलों ने गंग-राजधानी तलकाद थे। शिलालेखों में उनके दान आदि का उल्लेख है। पर आक्रमण किया और उस पर तथा गंगवाड़ी के बहुत से
मारसिंह (९६१-६७४ ई.)नामक गंगनरेश जैनधर्मका भाग पर अधिकार कर लिया। परवर्ती काल में भी, कुछ महान् अनुयायी या। इस नरेश की स्मृति एक स्मारक विद्वानों के अनुसार, गंगवंश १६वीं शती तक चलता रहा स्तम्भ के रूप मे श्रवणबेलगोल की चन्द्रगिरि पर के मंदिर- किन्तु होयसल, चालुक्य, चोल, विजयनगर प्रादि राज्यों पाके परकोटे में प्रवेश करते ही उस स्तम्भ पर आलेख के सामन्तों के रूप में।