Book Title: Anekant 1991 Book 44 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 134
________________ २२, ४,कि.४ प्रति मन में यकायक श्रद्धाभाव उमड़ पड़ता है जिन्होंने करवा कर विभिन्न जिनालयों में भेजा करते थे इसलिए पिछले चार-पांच सौ वर्षों में अपने कठिन श्रम से भारतीय ये कवि गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान, मध्यप्रदेश, बिहार वाङ्मय को सुरक्षित और चिरजीवी बनाया है। वेल- सभी क्षेत्रों में बड़े लोकप्रिय हो गए। बेडियर प्रेस प्रयाग ने संत साहित्य और पुष्टिमार्गीय इनके प्रन्य-रत्नों की चमक ने ब्रजभाषा अथवा संस्था कांकरोली ने कृष्ण भक्ति साहित्य के प्रकाशन में पश्चिमी हिन्दी को बडा लोकप्रिय बनाया तथा विषम बड़ी तत्परता दिखलाई है । विभिन्न जिनालयो मे परम्परा परिस्थितियों में भी देश की भावात्मक एकता मे योगदान से उपलब्ध लक्षाधिक हस्तलिखित कृतियो की उपेक्षा किया। आज वेज्ञानिक और सुविधा सम्पन्न युग करके उन्हें चहो और दीमकों की दया पर छोड़ना उचित प्राचीन परम्परा से मिलता-जुलता रूप सुगमता से व्यवन होगा। द्यानतराय, विनोदीलाल, नथमल विलाला, हार्य हो सकता है । श्रेष्ठ कवियों की खोज, प्रकाशन और देवीदास जगराम गोदीका जैसे श्रेष्ठ कवियो के काव्य- हिन्दी साहित्य मे उन्हें स्थान दिलवाने के लिए श्रेष्ठिजनों, रत्नों को कब तक हम वेष्ठनों मे कैद रखेंगे? मध्ययुग मे शोधक और प्रतिष्ठित विद्वानो का समन्वित प्रयास अपेसेढ़मल जैसे त्यागी तथा अन्य वृत्तिभोगी ब्राह्मणो से जैन. क्षित हो गया। घेष्ठि परम्परागत जैन ग्रन्थो की सहस्रो प्रतिलिपियां परिग्रह-पाप परिग्रह ग्रहप्रस्तः सर्व गिलितुमिच्छति । धनं न तस्य संतोषः, सरित्पूरमिवार्णवः ॥ परिग्रहरूपी ग्रह से ग्रसित प्राणो समस्त धन को निगलना चाहता है उसे सन्तोष उसी प्रकार नही होता जिस प्रकार नदियो की बाढ़ से समुद्र को सन्तोष नही होता। परिप्रहममुक्त्वा यो मुक्तिमिच्छति मूढधोः। खपुष्पैः कुरुते सारं स बन्ध्यासुतशेखरम् ॥ --जो मखं 'परिग्रह' को छोड़े बिना मुक्ति (आत्मशुद्धस्वरूप) प्राप्त करना चाहता है, वह बन्ध्या के सुत और आकाश पुष्पों से मुकुट बनाना चाहना है। द्रव्यं दुःखेनचायाति स्थितं दुःखेन रक्ष्यते। दुःख शोककरं पापं धिक द्रव्यं दुःख माजनम्॥ -धन दुःख से आता जाता है, दुख से ठहरता है और दुख से रक्षा किया है। दुख-शोक को कराने वाले पापरूप द्रव्य को धिक्कार है-द्रव्य दुख का भाजन है। शय्याहेतुं तुणादानं मुनीनां निन्दितं बुधैः। यः स द्रव्यादिकं गृहन् किं न निन्छो जिनागमे ।। -विद्वानों से शय्या-हेतु तृण को ग्रहण करने वाले मुनि की निन्दा की गई है-जो मुनि द्रव्यादि को ग्रहण करता है वह जिन-प्रागम मे निन्ध है।

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