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१४ वर्ष
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अनेकान्त
जीव का कर्तव्य मात्मचिंतन करना है जिसके निमित्त से निर्जरा करें इस प्रकार मिश्र मोहनी का नाश करें। चरित्रमोह के निषेक भी क्रम से हीन होते-२ क्षय को प्राप्त तत्पश्चात सम्यक्त्वप्रकृति के परमाणु उदय माकर खिर हो जाते हैं तथा बाद में ज्ञानावर्णी, दर्शनावर्णी और अंत- जाते हैं। अगर इन परमाणुओं की स्थिति बहुत बाकी राय कर्म का भी क्षय हो जाता है जो अनादिकाल से होय तो स्थिति काडादिक के द्वारा घटावें और जब स्थिति मिथ्यात्व के कारण मलिन हो रहा था। इस मलिनता के अंतर मुहूर्त मात्र रह जाती है तब उसको कृत-कृत वेदक नाश हो जाने से अपने निज स्वभाव पारिणामिक भाव सम्यग्दृष्टि कहते हैं। इस प्रकार मिथ्यात्व के सर्व निषेकों को प्राप्त हो जाता है जैसा उमा स्वामी महाराज ने का नाश होने के पश्चात क्षायक सम्यग्दर्शन होता है। तत्वार्थ सूत्र के १०वें अध्याय मे कहा है-'औपशमकादि यह सम्यग्दर्शन प्रतिपक्षी मिथ्यात्व कर्म के अभाव होने से भव्यत्वानां च, फिर केवलज्ञान तथा केवलज्ञान के पश्चात् प्रत्यन्त निर्मल है तथा वीत राग है। जहां से यह सम्यग्सिद्ध पर्याय प्रगट हो जाती है। जहा सम्मत्त, णाण, दंसण, दर्शन उत्पन्न होता है सिद्ध अवस्था तक रहता है इसका वीर्यस्व, सूक्ष्मत्व, अगुरु लघुत्व, अव्यावाधत्व तथा अवगा- कभी नाश नही होता। हनत्व आदि आठ गुण प्रकट हो जाते हैं। ये गुण सदा
जैनाचार्यों ने सम्यग्दर्शन की बड़ी महिमा बतायी है। स्थिर रहते हैं। अब उपशम सम्यग्दर्शन कहते हैं। अंतरकरण विधान ।
इसके बिना मुनि के व्रत पालन करने पर भी केवलज्ञान तें प्रनिवत्ति करण के द्वारा मिथ्यात्व (दर्शन मोड के नहीं होता चाहे कितना कठोर तपश्चरण भी क्यों न करें। परमाणु जिस काल में उदय पाने योग्य थे तिनको उदीर्णा
व्रतों के पालन करने में रंच मात्र भी दूषण न लगने दें। रूप होकर उदय न आ सके। ऐसे किये; इसको उपशम ।
कहा भी है-इसलिए कोटि उपाय बनाय भव्य ताकों उर
लाओ। लाख बात की बात यह निश्चय उर लाओ। कहते हैं। इसके बाद होने वाले सम्पक्त्व को ही प्रथमोपशम ।
तोरि सकल जंग द्वंद फंद निज आतम ध्याओ। सम्यक्त्व कहते है। ये अनादि मिथ्यादृष्टि के होता है। यह सम्यग्दर्शन चतुर्थादि गुणस्थान से सप्तम गुणस्थान पर्यन्त
देव योग से (विशेष पुण्योदय से) कालादि लब्धियों पाइये है। बहुरि सप्तम गुणस्थान मे उपशम श्रणों के के प्राप्त होने पर तथा संसार समुद्र निकट रह जाने पर सम्मुख होने पर जो क्षयोपशम सम्यक्त्व से सातव गुण- और भव्य भाव का विपाक होने से इस सम्यग्दर्शन की स्थान मे जो सम्यक्त्व होता है उसे द्वितीयोपशम सम्यक्त्व
प्राप्ति होती है। यह सम्पग्दर्शन आत्मा का अत्यन्त सूक्ष्म कहते हैं। इस सम्यग्दर्शन मे दर्शनमोहनी की तीनों
गण है जो केवल ज्ञानगम्य होने पर भी मतिज्ञानी, श्रुतप्रकृतियाँ उपशम रहती है।
ज्ञानी के स्वानुभवगम्य है। पंचाध्यायी गा. ४६२ तथा ___ अब क्षायिक सम्यग्दर्शन का स्वरूप कहिये हैं यहां सम्यग्दर्शन के विषय में पचाध्यायी की उ., गाथा ३७२ में दर्शनमोहनी की तीनों प्रकृतियों के सर्व निषकों का पूर्ण प्रश्न किया है कि ऐसा कोई लक्षण है जिससे जाना जा नाश होने पर जो निर्मल तत्व श्रद्धान होता है उसे क्षायक सम्यग्दर्शन कहते है। यह सम्यग्दर्शन चतुर्थादि गुणस्थाननि कहा है प्रशमसंवेग, अनुकम्मा तथा आस्तिक्य आदि और भी विषे कही क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि के होता है ।
अनेक गुण हैं। जिनसे सम्यग्दृष्टि पहिचाना जा सकता है क्षायक सम्यग्दर्शन कैसे होता है सो कहते है । प्रथम वे गण सम्यग्दर्शन के अविनाभावी है जो सम्पग्दर्शन के साथ तीन करण अधःकरण, अपूर्वकरण तथा अवृत्तिकरण के अवश्य होते हैं उन गुणो के बिना सम्यग्दर्शन कदापि नहीं द्वारा मिथ्यात्व के परमाणुओ को मिथ मोहनीय रूप वा होता तथा मिथ्यादष्टि के कदापि होते नहीं जैसे जितना सम्यक्त्व प्रकृतिरूप परिणमावे वा निर्जरा करें। इस भो इन्द्रिय जन्य सुख तथा ज्ञान है वह सम्यग्दृष्टि के लिए प्रकार मिथ्यात्व को सत्ता नाश करे, फिर मिश्र मोहनीर हेय है, त्याज्य है क्योंकि प्रशम गुण के होने से पंचेन्द्रिय के परमाणुओं को सम्यक्त्व प्रकृति के परमाणु रूप करेंवा संबन्धी विषयों में तथा असंख्यात लोक प्रमाण कषायों की