Book Title: Anekant 1991 Book 44 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 123
________________ अतिशय क्षेत्र महार के जम यन्त्र तगण, जगण एक गुरु और एक लघु वर्ण के क्रम में वर्ण ६.त्तिदेवाः (यंत्र) अनोत्काव्यवहृत हुए हैं। प्रथम तीन चरणों की दृष्टि से इन्द्रवजा १०.न्वये स० (साह) नरदेवा (यत्र) स्तस्य भार्या स० और अन्तिम चरण की द्रष्टि से उपेन्द्रवज्रा छन्द का (सारणी) व्यवहार हुआ ज्ञात होता है। अन्तिम चरण का अन्तिम ११. जैणी ययेः (यो.) पुत्र स० (साहु) विहराज तस्य वर्ण दीर्घ होना चाहिए था। यंत्र लेखो में यही एक लेख भार्या साध्वी हरसो स० (साहु) वरदेवहै जिसमें पद्य का व्यवहार हुआ है। १२. भ्राता स० (साहु) रूपचंद तस्य पुत्र स० (गाई) भावार्थ-परम प्रमोद रूप इन्द्र के पद को धारण नालिगु द्वितीय समलू । स० (साहु) नालिगु पुकर अपने अन्दर अपने आपको धन मानता हुआ तीर्थकर १३. व आढू प्रतिष्ठ (तम्) । लक्ष्मी की मैं पूजा दरता हूं। यह पद्य सम्कृत षोडश पाठ टिप्पणी कारण पूजा का स्थाप-पद्य है। इस यज्ञ लेख में स० साहु के और मा० माहणी के (२६) अष्टांग सम्यग्दर्शन यन्त्र अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। स के स्थान में स का चार भी द्रष्टव्य है। यह यन्त्र ताम्र धान के ५३ इच चौकोर एक फलक भावार्थ-संवत् १५०२ कार्तिक मुदिमी भोमपर उत्कीर्ण है। इसकी तीन कनियाँ हैं। मध्य के दो वार के दिन काष्ठासंघ के भट्ट र क श्री गण मात्तिदेव के भाग ऊपर की होर उठे हुए हैं। दूसरी कटनी की अपेक्षा प्रशिष्य और श्री यशकोत्तिदेव के शिष्य भट्ट रक गनयप्रथम कटनी (मध्य भाग) अधिक ऊंचा है। ऊपरी भाग कोत्तिदेव को आम्नाय के अग्रवाल शाह वरदेव के पुत्र में सस्कृत भाषा और नागरी लिपि में तेरह पंक्ति का लेख शाह विहराज और पुत्रवधु हरसो न तथा वरदेव के भाई अंकित है जो ह्रीं वीजाक्षर की ओर से आरम्भ हुआ है। शाह रूपचन्द यो के नालियुग और समलू दो पुगो तथा यह सर्वाधिक प्राचीन यत्र है । 'प्राचीन शिलालेख' पुस्तक नालिग के पुत्र आढ़ ने इस यत्र की प्रतिष्ठा कराई। मे इसका उल्लेख लेख संख्या १२६ से हुआ है। लेख (३०) धर्मचक्र यन्त्र निम्न प्रकार है यह यन्त्र पीतल धातु के ७ इच व लाकार एक फलक मूलपाठ पर ४६ आरे बनाकर बनाया गया है। इस पर कोई लेख १. कल्पनातिगता बुद्धिः परभावा विभाविका। ज्ञानं नही है। इस यन्त्र के आरे ७.७ दिन तक सात प्रकार के निश्चयतो जे. मेघों के बरसने के पश्चात् नयी सृष्टि के धर्म और काल २. य तदन्य व्यवहारत. ।। सवत् १५०२ वर्षे का. परिवर्तन के चक्र को ओर ध्यान आकृष्ट करते है। ३. निग (क) सुदि ५ भौ (यत्र) मदिने श्री का (३१) श्री पार्श्वनाथ चितामणि यंत्र ४. ष्ठासंघे भ (यंत्र) ट्टारक श्री गु यह वन्त्र चौकोर दो इंच के एक ताम्र फनक पर ५. णकीत्ति (यंत्र) देव तत्प। उत्कीर्ण है। कोई लेख नहीं है। यन्त्र सोलह भागो मे ६. श्री च (यंत्र) स (श) की विभाजित है। प्रत्येक भाग में ऐसी संख्या है जिसका बायें ७. त्तिदेव से दायें या ऊपर से नीचे चार वण्डों का योग १५२ १. तत्पट्ट श्री (यंत्र) मलको आता है।

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