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मुनि श्री मदनकोतिय
च--चार्वाकश्चरितोज्झितरभिमतो.. २६वें छन्द मे चार्वा- टीका का आद्य गोश । इस तरह और भी कई ऐतिकों का उल्लेख है ।
हासिक घटनाएं इन ३५ छन्दो से जुड़ी हुई हैं। नवम श्री-श्रीदेवी प्रमुखाभिरचितपदाम्भोज:--२७वे छन्द मे छन्द में बेतवा के शान्ति जिन । लगता
छन्द में वेतवा के शान्ति जिन । लगता है पाडा साहु द्वारा नर्मदान्डे शान्तिजिन का वर्णन है।
निर्मित शान्तिनाथ की प्रतिमा आहार क्षेत्र या बजरंगगड़ पू-पूर्व याऽऽश्रमजगाम सरिता २८वें छन्द में अवरोध स्थित प्रतिमा हो। उपर्युक्त कृति से यह तो स्पष्ट ज्ञात नगर के मुनि सुव्रतनाथ का वर्णन है।
होता है कि मुनि श्री पर्यटक थे और विभिन्न तीर्थस्थलों ज्य-जायानाम परिग्रहोऽपि भविना.. २६वें छन्द मे।
की उन्होंने यात्रा की थी। स्व० पं० परमानन्द जी का अपरिग्रह का वर्णन है।
मत है कि मुनिश्री पुनः दीक्षित न होकर अर्हद्दास नाम से सि-सिक्ते सत्सरितोऽम्बुभिः शिखरिण:३०वें छन्द मे गहस्थ हो गये थे और मुनि सुव्रत काव्य जैसी कृतियों की विपुलाचल का वर्णन है।
रचना की पर इसमे कितनी प्रमाणिकता है यह शोध का ध-धर्माधर्मशरीर जन्यजनक""३१वें छन्द मे बोद्धों का विषय है पर 'शासनचस्त्रिंशतिका' का पहला अनुष्टुप वर्णन है।
छन्द निश्चय ही उनके पुनः दीक्षित होने का द्योतक है। य:-यस्मिन् भूरि विधातुरेकमनसो ३२वें छन्द में विध्य- तीसरे छन्द मे वर्णित श्रीपुर महाराष्ट्र के अकोला गिरि का वर्णन है।
जिला स्थित वाशिम ताल्लुके का ग्राम शिरपुर है जहां आ-आस्ते सम्प्रति मेदपाठविषये...३३वें छन्द में मेवाड
अंतरिक्ष पाश्र्वनाथ की सातिशय प्रतिमा विद्यमान है और के मल्लिनाथ का वर्णन है।।
दिगम्बरी प्रतिमा है। कहते हैं इसके नीचे से घुड़सवार श्री–श्रीमन्मालव देश मगलपुरे. ३४वे छन्द में मालवा
या सिर पर घड़ा रखे पनिहारिन निकल जाती थी पर के मंगलपुर में स्थित अभिनंदन स्वामी का वर्णन है।
अब काल दोष से उतना प्रभाव तो नहीं रहा फिर भी इस तरह मुनि मदनकीर्ति प्रथम ने केवल ३५ छन्दो
इसके नीचे से अभी भी रुमाल या पतला कपड़ा निकल की रचना कर इतिहास में अपना स्थान बना लिया है
सकता है। सम्पूर्ण क्षेत्र दिगम्बरी है पर इस सातिशय जैसे कि हिन्दी मे पं. चन्द्रधर शर्मा गुलेरी ने केवल एक
प्रतिमा पर श्वेताम्बरों ने अपना अधिकार कर लिया है कहानी-'उसने कहा था' लिखकर इतिहास में अपना
और एक विवादास्पद स्थिति पैदा कर दी है, आशा है स्थान बना लिया है। मुनि जी की इस रचना के अति-
लोग मिल बैठकर समूचित समाधान ढूंढ निकालेंगे।
गतिक रिक्त भण्डारों में खोज करने पर सम्भवतः राजा कुन्ति- मनि मदनकोति द्वितीय-मुनिश्री मदनकीर्ति दि. भोज के पूर्वजों की गाथा मिल जावे तो वह इतिहास की बलात्कार गण की दिल्ली जयपुर शाखा की आचार्य बहुमूल्य धरोहर सिद्ध होगी। 'शासन चतुस्त्रिंशतिका'
परम्परा में भट्टारक पद्मनंदी के शिष्य थे। इस शाखा की के प्रत्येक छन्द के अन्त में 'दिग्वाससां शासनम्' का प्रयोग
स्थापना भ० शुभचन्द्र ने सं० १४५० में की थी, वे ५६ कर मुनिश्री ने दिगम्बरत्व की प्रधानता को विशेष रूप से वर्ष तक इस पट्ट पर आसीन रहे। वे ब्राह्मण जाति के घोषित किया है। इन छन्दों में अनेको ऐतिहासिक घट- थे। इसी परम्परा मे मुनि मदनकीर्ति द्वि० के शिष्य नरनाओं का समावेश है जैसे ३४वें छन्द मे म्लेच्छ शहाबुद्दीन सिंहक ने झन्झणपुर में "तिलोयपणती" की मार्गशीर्ष गौरी का मालवा के आक्रमण का उल्लेख है। २८वें छद शक्ला ण भौमवार सं० १५१७ को प्रतिलिपि की थी तथा में आश्रमपत्तन (केशोराय पाटन) में मुनि सुव्रत नाथ का ज्येष्ठ सुदी १० बुधवार सं० १५२१ को ग्वालियर में चंत्यालय ऐतिहासिक है। यहां नेमचन्द्र सिद्धान्तदेव और "पउमचरिउ" की प्रतिलिपि इन्ही मुनिश्री के शिष्य ने ब्रह्मदेव रहते थे। यहां सोमराज श्रेष्ठी के लिए नेमिचन्द्र नेत्रनंदी के लिए लिखी थी। इस आचार्य परम्परा में सिद्धान्तदेव ने 'द्रव्यसग्रह' की रचना की थी तथा ब्रह्मदेव प्रभाचन्द्र पद्मनंदी, शुभचन्द्र, जिनचन्द्र, पद्मनंदी, मदनने उसकी टीका की थी। देखो ब्रह्मदेवकृत द्रव्यसंग्रह की कीर्ति, नेत्रनंदी आदि अनेक भट्टारक हुए हैं। पउमचरिउ