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मुनि श्री मदनीति द्वय
0 ले० श्री कुन्दनलाल जैन, दिल्ली
जैन वाङ्गमय के इतिहास में हमें मदनकोति नाम के इत्युदय सेनमुनिना कवि सुहृदायोऽभिनन्दितः प्रीत्यः । दो मुनियो के ऐतिहासिक साक्ष्य उपलब्ध होते हैं। पहले प्रज्ञापुजोऽसीति च योऽभिहितो मनदकीति यतिपतिना ॥ मदनकीति तो वे हैं जिन्होंने स. १२६२ के लगभग स० १४०५ मे श्वे० विद्वान् राजशेखर सूरि ने 'शासन चतुस्त्रिंशतिका' (शासन चौतीसी) नामक सुपुष्ट 'प्रबन्धकोष' (चतुर्विशति प्रबध) नामक ग्रन्थ लिखा था रचना की थी जिसमें विभिन्न ऐतिहासिक सिद्ध क्षेत्रों जिसमें चौबीस विशिष्ट व्यक्तियों के परिचयात्मक प्रबंध एवं अतिशय क्षेत्रों का वर्णन है। इन्हें पाठक मदनकीति लिखे हैं उनमें से एक 'मदनकीर्ति प्रबन्ध' नामक प्रबंध भी प्रथम के नाम से पहिचान करें।
है इसमें मुनि मदनकीर्ति प्रथम की विद्वत्ता एवं प्रतिभा का दूसरे मुनि मदनकीति वे है जिनके शिष्य ब्र० नर- विशिष्ट वर्णन करते हुए उन्हें 'महाप्रमाणिक चूडामणि' सिंहक ने झुंझुणपुर में सं० १५१७ में "तिलोयपण्णत्तो" लिखा है । साथ ही लिखा है कि वे इतने प्रतिभाशाली थे को प्रतिलिपि की थी तथा सं० १५२१ में इन्ही के शिस्य कि एक दिन मे पाच सौ श्लोक रच लेते थे पर लिख नेत्रनंदी के लिए 'पउमचरिउ' की प्रतिलिपि की गई थी, नहीं पाते थे। वे वाद-विवाद में बड़े निष्णात थे। अपने इन्हें हम मुनि मदनकोति द्वितीय के नाम से सबोधित प्रतिपक्षियों को अकाट्य युक्तियों द्वारा सदैव परास्त कर करेंगे।
दिया करते थे इसलिए वे 'महाप्रामाणिक चूडामणि' के मनि मवनकीति प्रथम-मुनि मदनकोति प्रथम विरुद से विख्यात हुए थे। तेरहवी सदी के विख्यात मनीषी विद्वान् थे नो 'यतिपति' एक बार वे अपने गुरु विशालकीर्ति जी की आज्ञा
और 'महाप्रामाणिक चूडामणि' शीर्षक विरुदो (उपाधियों- विना ही महाराष्ट्र आदि प्रदेशो में वाद विवाद के लिए विशेषणों) से सुशोभित थे। इनके गुरु का नाम श्रीविशाल चल दिये; भ्रमण करते हुए कर्णाटक प्रान्त के विजयपुर कीर्ति था। "शब्दार्णव चन्द्रिकाकार" मुनि सोमदेव ने राज्य के राजा कुन्तिभोज की राज्यसभा में पहुंचकर विशालकीति का अपने ग्रन्थ में उल्लेख किया है वे लिखते उन्होंने अपनी विद्वत्ता और प्रतिभा का परिचय दिया, हैं कि-कोल्हापुर प्रान्त के अर्जुरका ग्राम मे वादीभ- जिससे राजा प्रभावित हुआ और उसने अपने पूर्वजों के वजांकुश विशालकीर्ति की वैयावृत्य से वि० सं० १२६२ वर्णन का अनुरोध किया तो मुनि जी ने लेखक की मांग में यह ग्रन्थ समाप्त किया।" वादीन्द्र मुनि विशालकीर्ति की, इस पर महाराज कुन्तिभोज ने अपनी विदुषी पुत्री को, पं० आशाधर जी ने, जो धारा नगरी के निवासी थे, मदन मंजरी से आग्रह किया और उसने पर्दे के पीछे छिपन्यायशास्त्र का अभ्यास कराया था पतः विशालकीर्ति कर लिखना स्वीकार कर लिया। कालान्तर मे दोनो में और मुनि मदनकीति प्रथम धारा नगरी में ही निवास प्रेम प्रसंग बढ़ गया, जब गुरु विशालकीति को इसका पता करते होंगे। प० आशाधर जी ने अपने 'जिनयज्ञकल्प' तो उन्होंने प्रताड़ना भरे पत्र लिखकर अपने शिष्यों को (प्रतिष्ठासारोद्धार) नामक ग्रन्थ जो वि० सं० १२८५ में उनके पास उन्हें वापिस लिया जाने को भेजा, पर मुनि समाप्त हुआ था, की प्रशस्ति मे मुनि मदनकोर्ति प्रथम जी पर इसका कोई असर न हुआ किन्तु कुछ दिनों बाद को यतिपति कहा है तथा उनके द्वारा 'प्रज्ञापुंज' की उपाधि उन्हें स्वयं बोध हुआ और प्रात्मग्लानि से पीड़ित हुए तब प्राप्ति का उल्लेख किया है
उन्होंने इस दुष्कर्म से निवृत्ति लेकर पुनः दीक्षा धारण