Book Title: Anekant 1991 Book 44 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 128
________________ अनिकान्त को प्रशस्ति मूलरूप से उद्धत कर रहे हैं-"संवत् १५२१ उसमें महाराज कुन्तिभोज के पूर्वजों की यशोगाथा यदि वर्षे ज्येष्ठ मासे सुदि १० बुधवारे श्री गोपाचल दुर्गे श्री मिल जाती है तो इतिहास की बहुमूल्य धरोहर हाथ लग मूलसंधे बलात्कारगणे . "भ० श्री प्रभाचन्द्र देवाः तत्र सकती है । मुनिश्री मदनकीति प्रथम इतिहासवेत्ता भी थे श्री पपनंदि शिष्य श्री मदनकोति देवाः तच्छिष्य श्री नेत्र. अपनी छोटी-सी कृति में उन्होने इतिहास की अनेकों घटनंदी देवा: तन्निमित्रे खंडेलवाल लुहाडिये गोत्रे संगही नाओं का उल्लेख किया है जिन्हें लोग प्रायः विस्मति के पामा भार्या धनश्री......" गर्भ में हवा चुके हैं। जहां वे इतिहास के वेत्ता थे वहां तिलोयपण्णत्ती की मूल प्रशस्ति निम्न प्रकार है- उन्हें जैनेतर दर्शनों सांख्य, वैशेषिक, चार्वाक, शैव, "स्वस्ति श्री संवत् १५१७ वर्षे मार्ग सूदि ५ भौमवारे मीमांसक नैय्यामिक, कापालिक आदि का भी गम्भीर मलसंघे बलात्कारगणे..... भ. पपनंदी देवाः तत्प भ० अध्ययन था इसी के बल पर वे बाद-विवाद में कभी पराश्री शुभचन्द देवाः मुनिश्री मदनकीति तच्छिष्य ब्रह्म नर. जित नहीं होते थे और दिगम्बर शासन की धर्मध्वजा को सिंहकस्य... श्री झुझुणपुरे लिखितमेतत्पुस्तकम् ।" फहराते हुए निर्भयता पूर्वक विभिन्न प्रदेशों में विचरण इस तरह मुनिश्री मदनकीर्ति द्वि० का संक्षिप्त-सा किया करते थे और अपनी यश पताका फहराते रहते थे। उल्लेख मिलता है, इनकी किसी कृति का कोई पता नही उन्हान गिरकर उन्होंने गिरकर संभलना सीखा था, ऐसे दृढ़ अध्यवसायी चलता है। पर मुनिश्री मदनकीर्ति प्रथम की विद्वत्ता एवं परमपुनात मुनिश्रा . परमपुनीत मुनिश्री के चरणों में अपने श्रद्धा सुमन समर्पित प्रतिभा से जैन साहित्य का इतिहास जगमगा रहा है । करता हूं। यद्यपि उनकी छोटी-सी एक ही रचना 'शासनचतुस्त्रिंश श्रुत कुटीर, ६८ विश्वास मार्ग, ठिका' उपलब्ध है पर यदि भण्डारों को खोजा जाय और विश्वासनगर, शाहदरा दिल्ली-३२ विगौरा (टीकमगढ़) निवासी देवी दास भायजी के दो पद : राग केदारो, राग सोरठ तिम्हि निज पर गुन चीन्ही रे। जाननहार हतो सोई जान्यो लखन हार लखि लीन्हो रे । ग्राहक जोग वस्तु ग्राहज करि, त्याग जोग तजि दीनो रे। धरने की सु सुधार ना धरि, पुनि करने काज सु कीनो रे। सत रागादि विभाव परिनमन सो समय प्रति खीनो रे। देवियदास भयो सिव सनमुख सो निरग्रंथ उछीन्हो रे ॥ चेतन अंक जीव निज लन्छन जड सु अचेतन रीन्हों रे। परसम शाम चरन जिनके घट प्रकट भये गुन तीनो रे। निजी राग नटनियति लटी हो नियति लटी, श्रवन सबद सुन मगन रहत पुनि निद्रा जुत अस्नेह हटी।३ हम देखी जग जीवनि की नियति लटी। बसत प्रमाद पुरां जुग जुग के छाडि सबै निज बल सुभटी। सुमति सखि सरवंग विसरि करि डोके दुर्गति नकटी॥१॥ टुक सुख काज इलाज करत बहु परबस परि मरजाद घटी। राजकथा तसकर त्रिय भोजन विसवा सर मुख सुठटी। गुरु उपदेश विष सुन बावत तिनत भव परणति उचटी। कोध कलित प्रति सुमान मय लोभ लगन अंतर कपटी॥२ देवीदास कहत जिय सींचत फलहत बेलि नहीं उखटी॥ण॥ सपरस लीन गंध रसना रुल वरन रूप सुर नर प्रगठी। -श्री कुन्दनलाल बैन के सोजन्य से

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