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बनेकान्त
'सर्वनमस्य' दान के रूम में भूमि दानया था। ७६३ ई.) तक राज्य किया। उसकी पट्टरानी वेगि के
विक्रमादित्य षष्ठ त्रिभुवनमल्ल साहसतुंग (१०७६. चालुक्य नरेश की पुत्री थी और जिनभक्ता थी। डॉ. ११२८ ई.) इस वंश का अन्तिम नरेश था ! कुछ विद्वानो ज्योतिप्रसाद जैन के अनुसार, अपभ्रश भाषा के जैन महाके अनुसार, उसने जैनाचार्य वासवचन्द्र को 'बालसरस्वती' कवि स्वयम्भ ने अपने रामायण, हरिवंश, नागकुमार. की उपाधि से सम्मानित किया था। गद्दी पर बैठने से चरित, स्वयम्भू छन्द आदि महान ग्रन्थो की रचना इसी पहले ही उसने बल्लियगांव मे 'चालुक्य गंगपेनिडि नरेश के आश्रय में, उसी की राजधानी मे रहकर की थी। जिनालय, नामक एक मन्दिर बनवाया था और देव पूजा कवि ने अपने काव्यों में धुवराय धवल इय नाम से इस मनियों के आहार आदि के लिए एक गांव दान मे दिया आश्रयदाता का उल्लेख किया है।"पुन्नाटसंघी आचार्य था। एक शिलालेख से ज्ञात होता है कि उसने हुनसि जिनसेन ने ७५३ ई. में समाप्त अपने 'हरिवशपुराण' के हदल्गे में पद्मावती-पाश्र्वनाथ बसदि का निर्माण कराया अन्त में हम मरेश का उल्लेख "कृष्ण नप का पुत्र श्री था। इसके अतिरिक्त अनेक स्थानों पर मन्दिर बनवाए वल्लभ जो दक्षिणापथ का स्वामी था" इस रूप में किया है। तथा चोलों द्वारा नष्ट किए गए मन्दिरों का जीर्णोद्धार राजा ध्रव के बाद गोबिन्द तनीय (७६३.८१४ ई.) भी कराया था। उसके गुरु आचार्य अर्हनन्दि थे। उसकी राजा हुआ था। उनके समय में राज्य का खूब विस्तार रानी जक्कलदेवी भी परम जिनभक्ता थी।
भी हुआ और उसकी गणना साम्राज्य के रूप में होने लगी उपर्युक्त चालुक्य नरेश के उत्तराधिकारी कमजोर थी। उसने कर्नाटक में मान्यखेट (आधुनिक मलगेट) में सिद्ध हुए। अन्तिम नरेश सम्भवत: नर्मडि पैलप (११५१. नई राजधानी और प्राचीर का निर्माण कराया था । कुछ ५६ ई.) था जिसे परास्त कर कल्याणी पर कलचुरि वंश विद्वानों के अनुसार, वह जैनधर्म का अनुयायी तो नहीं था का शासन स्थापित हो गया। इस वंश का परिचय प्रागे किन्तु वह उसके प्रति उदार था। उसने मान्यखेट के जैन दिया जाएगा।
मन्दिर के लिए ८०२ ई. मे दान दिया था। ८१२ ई. में राष्ट्रकूट-वंश:
उसने पूनः शिलाग्राम के जैन मन्दिर के लिए अर्ककीति इस वश का प्रारम्भिक शासन-क्षेत्र मुख्यतः महाराष्ट्र नामक मुनि को जाल गंगल नामक ग्राम भेंट मे दिया था। प्रदेश था किन्तु उसके एक राजा दतिवर्मन् ने चालुक्यो
इसके समय में महाकवि स्वयम्भू ने भी सम्भवतः मुनिको कमजोर जान आठवी शती के मध्य में (७५२ ई.) दीक्षा धारण कर ली थी जो बाद में श्रीपाल मुनि के नाम कर्नाटक प्रदेश पर भी अधिकार कर लिया था। कुछ
से प्रसिद्ध हुए थे। विद्वानो का मत है कि उसने प्रसिद्ध जैनाचार्य अकलक का
सम्राट् अमोघवर्ष प्रथम (८१५-८७७ ई.)-यह
शासक जैनधर्म का अनुयायी महान् सम्राट् और कवि था। अपने दरबार में सम्मान किया था। इसका आधार
वह बाल्यावस्था मे मान्यखेट राजधानी का अभिषिक्त श्रवणबेलगोल का एक शिलालेख है जिसमे कहा गया है
राजा हुमा। उसके जैन सेनापति ककथरस और अभिकि अकलक ने साह तुग को अपनी विद्वत्ता से प्रभावित
भावक कर्कसज ने न केवल उसके साम्राज्य को सुरक्षित किया था। सहसतुग दन्तिवमन् की ही एक उपाधि थी।
रखा अपितु विद्रोह आदि का दमन करके साम्राज्य मे दन्तिवर्मन् के बाद कृष्ण प्रथम अकानवर्ष शुभतुंग
शान्ति बनाए रखी तया वंमव में भी वृद्धि की। अनेक (७५७-७७३ ई.) राजा हुआ। उसी के समय मे एलोरा
अरब सौदागरों ने उसके भासन की प्रशसा को है। सुलेके सुप्रसिद्ध मन्दिरो का निकाण हुआ जिनमे वहा के प्रसिद्ध
मान नामक सौदागर ने तो यहाँ तक लिखा है कि उसके जन गुहा मन्दिर भी है। उसने चालुक्यो के सारे प्रदेशों
राज्य मे चोरी और ठगी काई भी नही जानता या, को अपने अधीन कर लिया। उसने आचार्य परवादिमल्ल
सबका धर्म और धार्मिकसम्पत्ति सुरक्षित थी । अन्य-सषा को भी सम्मानित किया था। इस परेश को परम्परा मे
लोग अपने-अपने राज्य में स्वतन्त्र रहता भी उसकी ध्रुव-धारावर्ष-निरुपम नामक शासक हुआ जिसने (७७६- प्रभुता स्वीकार करते थे।