Book Title: Anekant 1991 Book 44 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 115
________________ कर्नाटकमधर्म सम्राट अमोघवर्ष ने कन्नड़ भाषा में 'कविराजमार्ग' ज्योति प्रसाद जैन ने लिखा है कि "प्रो. रामकृष्ण भण्डानामक एक ग्रन्य अलकार और छन्द के सम्बन्ध में लिखा रकर के मतानुसार, राष्ट्रकूट नरेशों मे अमोघवर्ष जैनधर्म है जिसका आज भी कराड़ में आदर के साथ अध्ययन का महान् संरक्षक था। यह बात सत्य प्रतीत होती है कि किया जाता है। उसके समय मे सस्कृत, प्राकृत, अपभ्रश उसने स्वयं जैनधर्म धारण किया था।" और कन्नड़ में विपुल साहित्य का सृजन हुआ। उसके सम्राट अमोघवर्ष के महासेनापति परम जिनमस्त बचपन के साथी आचार्य जिनसेन ने जैन-जगत् मे सुप्रसिद्ध बंकेयरस ने कर्नाटक में बंकापुर नामक एक नगर बसा 'आदिपुराण' जैसे विशालकाय पुराण की रचना की। थे। जो कर्नाटक के एक प्रसिद्ध जैन केन्द्र के रूप मे प्रसिद्ध आचार्य ऋषभदेव और भरत का जीवन-चरित्र लिखने क हुमा और आज भी विद्यमान है। बाद ही स्वर्गस्थ हो गए। उनके शिष्प आचार्य गुणभद्र ने कृष्णराज द्वितीय (८७८-६१४ ई.) सम्राट् अमोघवर्ष उत्तरपुराण में शेष तीर्थकरो का जीवन-चरित लिखा। का उत्तराधिकारी हुआ। 'उत्तरपुराण' के रचयिता अन्य के अन्त में उन्होन लिखा है कि सम्राट अमोघवर्ष आचार्य गुणभद्र उसके विद्यागुरु थे। उसी शासनकाल मे जिनसेनाचार्य का चरणो की चन्द । कर अपने पापको आचार्य लोकसेन ने 'महापुराण' (आचार्य जिनसेन के धन्य मानता था। आयुर्वेद, व्याकरण ग्रादि से सम्बन्धित आदिपुर ण और आचार्य गुणभद्र के उत्तरपुराण) का अनेक ग्रन्थ उसी के आश्रय में रचे गए। उसने 'प्रश्नोत्तर पूजोत्सव बंकापुर में किया था। आज इस नगरी में एक रत्नमालिका' नामक पुस्तक स्वय लिखी है जिसके मगसा भी जैन परिवार नही है, ऐसी सूचना है। पूजोत्सव के चरण मे उसने महावीर स्वामी की वदना की है। उसके समय इस नरेश का प्रतिनिधि शासक लोकादिस्य वहां कुन्नर लेख तथा सजन ताम्रपत्र से ज्ञात होता है कि वह राज्य करता था। इस राष्ट्रकुट शासक ने भी मूलगुण्ड, एक श्रावक का जीवन व्यतीत करता था तथा जैन गुरुमो वदनिके आदि के अनेक जैन मन्दिरों के लिए दान दिए और जैन मन्दिरों को दान दिया करता था। रलमालिका' । थे। स्वयं राजा और उसकी पट्टरानी जैनधर्म के प्रति से यह भी सूचना मिलती है कि वह अपने अन्त समय में श्रद्धालु थे। उसके सामन्तों, व्यापारियों ने भी जिनालय राजपाट को त्याग कर मुनि हो गया था। सम्बन्धित बनवाए थे। श्लोक है __ इन्द्र तृतीय (९१४.९२२ ई.) भी अपने पूर्वजों की विवेकात्यक्तराज्येन राज्ञेयं रत्नमालिका। भांति जिनभक्त था। उसने चन्दनपुरिपत्तन की बसदि रचितामोघवरण सुधियां सवलकृतिः ॥ और बड़नगरपत्तन के जैा मन्दिरो के लिए दान दिए थे अर्थात विवेक का उदय होने पर राज्य का परित्याग और भगवान शान्तिनाथ का पाषाण-निमित सुन्दर पादकरके राजा अमोघवर्ष ने सुधीजनो को विभूषित करने पीठ भी बनवाया था। अपने राज्याभिषेक के समय उसने वाली इस रत्नमालिका नामक कृति की रचना की। पहले से चले आए दानो को पुष्टि की थी तथा अनेक प्राचीन भारतीय इतिहासज्ञ डॉ. अनन्त सदाशिव धर्मगुरुओ, देवालयों के लिए चार सौ गांव दान किए थे। अल्ते कर ने अपनी पुस्तक 'राष्ट्रकूट एण्ड देअर टाइम्स' कृष्ण तृतीय (९३९-९६७ ई.) इस वश का सबसे में लिखा है कि सम्राट् अमोघवर्ष के शासनकाल में जैन अन्तिम महान् नरेश था। वह भी जैनधर्म का पोषक था धर्म एक राष्ट्रधर्म या राज्यधर्म (State Religion) हो और उसने जैनाचार्य वादिषंगल भट्ट का बड़ा सम्मान गया था और उसकी दो-तिहाई प्रजा जैनधर्म का पालन किया था। ये बाचार्य गंगनरेश मारसिंह के भी गुरु थे। करती थी। उनके बड़े-बड़े पदाधिकारी भी जैन थे। इस शासक ने कन्नड़ महाकवि पोग्न को 'उभयभाषाचक्रउन्होंने यह भी लिखा है कि जैनियों की अहिंसा के कारण क्ती' की उपाधि से सम्मानित किया था। ये वही कवि भारत विदेशियों से हारा यह कहना गलत है। (सम्राट् पोन्न हैं जिन्होंने कन्नड़ में 'शान्तिपुराण' और 'जिनाक्षरचन्द्रगुप्त मौर्य का भी उदाहरण हमारे सामने है ।) . माले' की रचना की है। उसके मन्त्री भरत और उसके

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