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कर्नाटक में बन धर्म
जैनधर्म-प्रतिपालक गंगवंश कर्नाटक के इतिहास में जाता है (देखिए 'कल्याणी' प्रसंग)। तैलप द्वितीय का सबसे दीर्घजीवी राजवश था। उसकी कीति उस समय नाम इतिहास मे ही नहीं, साहित्य मे भी प्रसिद्ध है । तलप और भी अमर हो गई जब गोम्मटेश्वर महामूर्ति की द्वारा बन्दी बनाये गये धारानगरी के राजा मुंज और तैलप प्रतिष्ठापना हुई।
की बहिन मणालवती की कथा अब लोककथा-सी बन गई चालुक्य राजवंश:
है। तैलप प्रसिद्ध कन्नड़ जैन कवि रत्न का भी आश्रयदाता कर्नाटक में इस वश का राज्य दो विभिन्न अवधियों था । इस नरेश ने ६२७ ई. में राष्ट्रकूट शासकों की राजमे रहा। लगभग छठी सदी से आठवीं सदी तक इस वंश धानी मान्यखेट पर भीषण आक्रमण, लूटपाट करके उसे ने ऐहोल और वादामि (वातापि) नामक दो स्थानो को अधीन कर लिया था। कोगुलि शिलालेख (६६२ ई.) से क्रमशः राजधानी बनाया। दूसरी अवधि १०वीं से ११वीं प्रतीत होता है कि वह जैनधर्म का प्रतिपालक था। एक सदी की है जबकि चालुक्य वंश की राजधानी कल्याणी अन्य शिलालेख में, उमने राजाज्ञा का उल्लंघन करने वाले (आधुनिक बमव कल्याण) थी। जो भी हो, इतिहास मे यह को वसदि, काशी एव अन्य देवालयों को क्षति पहुंचाने वश पश्चिमी चालुक्य कहलाता है ।।
वाला घातकी घोषित किया है। वसदि या जैन मन्दिरका पहली अवधि अर्थात् छठी से आठवीं सदी के बीच उन्लेख भी उसे जैन सिद्ध करन में सहायक है। चालक्य राजाओ का परिचय ऐहोल और वादामी के प्रसग तैलप के पुत्र सत्याश्रय इरिववेडेग (९६७-१००६ ई.) में इसी पुस्तक मे इमी पुस्तक मे दिया गया है। फिर भी के गुरु द्रविड़ सघ कुन्दकुन्दान्वय के विमलचन्द्र पण्डितदेव यह बात पून: उल्लेखनीय है कि चालुक्य नरेश पुलकेशी थे। इस राजा के बाद जयसिंह द्वितीय जगदेकमल्ल द्वितीय के समय उसके आश्रित जैन कवि रविकोति द्वारा (१०१४-१०४२ ई.) इस वंश का राजा हुआ। यह जैन ६३४ ई. में ऐहोल में बनवाया गया जैन मन्दिर (जो कि गुरुओं का आदर करता था। उसके समय मे आचार्य अब मेगुटी मन्दिर कहलाता है) चालुक्य-नरेश की स्मृति वादिराज सूरि ने शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त की थी और अपने प्रसिद्ध शिलालेख में सुरक्षित रखे हुए है। यह शिला- इस नरेश ने उन्हें जयपत्र प्रदान कर 'जगदेकमल्लवादी' लेख पुरातत्त्वविदो और संस्कृत साहित्य के ममज्ञो के बाच उपाधि से विभूषित किया था। इन्हीं सूरि ने 'पार्वचरित' चचित है । इसी लेख से ज्ञात होता है कि पुलकेशी द्वितीय और 'यशोधरचरित' की रचना की थी। ने कन्नौज के सम्राट हर्षवर्धन को प्रयत्न करने पर भी जयसिंह के बाद सोमेश्वर प्रयम (१०४२-६८ ई.) ने दक्षिण भारत में घसने नही दिया था। उसके उत्तराधि- शासन किया। कोगलि से प्राप्त एक शिलालेख में उसे कारी मंगेश ने वाताप में राजधानी स्थानान्तरित कर ली स्याद्वाद मत का अनुयायी बताया गया है। उसने इस थी। उस स्थान पहाड़ी के ऊपरी भाग में बना जैन स्थान के जिनालय के लिए भूमि का दान भी किया था। गुफा-मन्दिर और उसमें प्रतिष्ठित बाहुबली की सुन्दर मूर्ति उसकी महारानी केयलदेवी ने भी पोन्नवाड के त्रिभुवनकला का एक उत्तम उदाहरण है। आश्चर्य होता है कि तिलक जिनालय के लिए महासेन मुनि को पर्याप्त दान चट्टानों को काटकर सैकड़ो छोटी-बड़ी मूर्तिया इस गुफा- दिया था। एक शिलालेख से ज्ञात होता है कि सोमेश्वर ने मन्दिर में बनाने में कितना कोश । अपेक्षित रहा होगा तुंगभद्रा नदी मे जलममाधि ले ली थी। और कितनी राशि व्यय हुई होगी।
___सोमेश्वर द्वितीय (१०६८-१०७६ ई.) भी जिनभक्त अनेक शिलालेख इस बात के साक्षी हैं कि चालुक्य- था। जब वह बंकापुर मे था तब उसने अपने पादपनवोपनरेश प्रारम्भ से ही जैनधर्म को, जैन मन्दिरो को सरक्षण जीवी चालुक्य उदयादित्य की प्रेरणा से वन्दलिके की देते रहे हैं । अन्तिम नरेश विक्रमादित्य द्वितीय ने पुलिगुरे शान्तिनाथ वसदि का जीर्णोद्धार कराके एक नयी प्रतिमा (लक्ष्मेश्वर) के 'धवल जिनालय' का जीर्णोद्धार कराया था। स्थापित की थी। अपने अन्तिम वर्ष मे उसने गुडिगेरे के
कल्याणी को जैन राजधानी के रूप में स्मरण किया श्रीमद भवन कमल्ल शान्तिनाथ देव नामक जैन मन्दिर को