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देखो, कहीं पता उगमगान गाए
होगा।
सके वह उनके सम्यक्त्व का ही प्रभाव पा-जिसके कारण जिनवाणी की रक्षा के लिए प्राचीन आचार्य और उनका मान निर्मल हुआ और वे जिनवाणी के रहस्य को उन द्वारा संकलित मागम के मूल का संरक्षण आवश्यक वहन कर सके। द्रव्यलिंगी मिथ्यावृष्टि की श्रवा तो 'जिन' है और वह मूल-पाठी तैयार करने से ही होगा। जब तक से भी डगमगाई रहती है; तब वह जिन की वाणी का नई वाणी लिखी जाती रहेगी तब तक मूल पीछे छुटता यथार्थ कथन कैसे कर सकता है ? प्रतः निश्चय ही हमारे चला जायगा और एक दिन ऐसा आयगा कि जिनवाणी परम्परित आचार्य सम्यग्दष्टि ही थे जो 'अहमिकको खलु- नाम शेष भी लुप्त हो जायगा तथा उसका स्थान अल्पा सुखो' जैसे वाक्य और वस्तु के गुण-पर्याय आदि का कथन वाणी ले लेगी। फिर इसकी भी क्या गारण्टी है कि आज करने में समर्थ हए। ऐसी स्थिति में परम्परित किन्हीं भी जो लिखा जा रहा है वह मूल का सही मन्तव्य ही हो, आचार्य में अपने मिथ्या तर्क के बल पर 'वे सम्यग्दृष्टि थे क्योंकि-"मुण्डे-मुण्डे मतिभिन्ना"-वर्तमान पन्यवाद भी या मिथ्यादृष्टि' जैसा भ्रम फैलाना आगम का घात करना इसी का जीता जागता उदाहरण है।
आगम के विषय मे 'अनात्मार्थ विनाराग।' और प्रश्न यह भी उठेगा कि आज जो नवीन-नवीन व्या- 'याप्तोपशमनलंयम
'आप्तोपशमनुल्लंघ्यमवृष्टेष्टविरोधकम् । तत्वोपदेश कत्' व्यायें की जा रही है और छोटे-मोटे अनेक लेखक अनेक
आदि कथन आए है। सो आज के कितने नए लेखक स्व ग्रन्थ लिखकर अपने नामों से प्रकाशित कराने की धुन
वीतरागी है, कितने परमार्थ चाहने वाले हैं, तथा उनमे मे है जिन्हें नाम या अर्थ संग्रह का भूत सवार है । क्या,
कितने निष्पक्ष हैं, कितनों के ग्रन्थ सर्वथा अनुल्लंघ्य है, उन पर सम्यग्दृष्टि होने की कोई मुहर लगी है ? या कही
कितनों के कथन में प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रमाणों से दूषण नहीं वे भी विभिन्न वेषों में द्रव्यलिंगीवत् बाह्याचार-क्रिया तो
है, और कितने सर्व हितकारी हैं? इस पर विचार किया नहीं कर रहे ? या वे निश्चय सम्यग्दष्टि जिन भगवान की
जाय। पर यह निर्णय करना भी सरल नहीं- इसमें भी जिनवाणी को न कह अपनी वाणी कह रहे है तो उनके पक्षपात रहने की सम्भावना है। फलतः-मूल आगम कथनानुसार कदाचित् मिथ्यावृष्टियों (?) द्वारा वहन की
और परम्परित आचार्य-नामों को स्थायी रखने के लिए गई जिनवाणी और वे स्वयं भी प्रामाणिक कैसे है? आवश्यक है कि मलपाठी तैयार किए जाय-अन्धाधुन्ध क्योंकि जैनियों में द्रव्यलिंगी को प्रामाणिकता नहीं दी नए लेखनो पर रोक हो। क्योंकि जिनवाणी ही हमारा गई-उसे मिध्यावृष्टि कहा गया है और मिथ्यावृष्टि का संबल है। उसकी व्याख्याएँ मौखिक वाचनो तक ही वचन मद्यपायी के वचनों सदश बावला जैसा वचन होता सीमित हों-ताकि गलत रिकार्ड से बचा जा सके। है। अतः उसकी बात सही कसे मानी जाय ?
दि० जैनों में स्तुति बोली जाती रही है-'जिनवारणी एक प्रसंग में हम पहिले भी लिख चुके हैं कि आधु- माता दर्शन की बलिहारिपा' और सुना भी गया है कि निक लेखकों की पुस्तकों से अल्पज्ञ भले ही धर्म-प्रचार किसी जमाने में लोग दक्षिण में जाकर महान् शास्त्रों के होना मान लें पर, दूरगामी परिणाम तो जिनवाणी का दर्शन मात्र से अपना जन्म सफल मान लिया करते थे। लोपही है। आश्चर्य नहीं कि ऐसे लेखन, व्यवहार से वर्तमान वातावरण के परिप्रेक्ष्य में कहीं भविष्य में उक्त मूल आगमों के पठन-पाठन और परम्परित आचार्यों के तथ्य भी न सुंठला जाय और लोग परम्परित आचार्यों नामों के स्मरण भी लुप्त हो जाये और वर्तमान लेखन व द्वारा संकलित परम्परित जिनवाणी के दर्शनो तक को भी लेखकों का नाम उभर कर सामने रह जायें। यदि वर्तमान न तरस जाएँ और उन्हें स्थान-स्थान पर जिनवाणी के सिलसिला चलता रहा तो निश्चय ही जिनवाणी का लोप स्थान पर नवीन लेखकों की वाणी जिनवाणी के रूप में समलिए।
दर्शन देने लगे। हम नहीं समझ पा रहे कि वर्तमान के