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२८, वर्ष ४४; कि०३
अनेकान्त सो हम भी इसका निषेध नहीं करते । हां, हम कुछ और फलत:-यदि मच्छ (पर में अपनत्वबुद्धि) के त्यागरूप गहराई में जाकर सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति में भी मूल अपरिग्रह के साथ सम्यग्दर्शन और आत्मदर्शन की व्याप्ति कारण मिथ्यात्व व अनंतानुबंधी परिग्रहो के अभाव पर की जाय तो इसमे गहराई ही है । पाखिर, हमने ऐसा तो भी लक्ष्य दिलाते है। क्योकि इनके आरिहार में मम्यग- कहा नहीं कि 'पूर्ण अपरिग्रही ही सम्यग्दर्शन का अधिकारी दर्शन दुर्लभ है। और इस परिग्रह के त्याग बिना आगे के है। हमने तो परिग्रह के एकांश और मिथ्यात्वरूपी जड गुणस्थान और अन्तत: मोक्ष भी दुर्लभ है। इसलिए हम
को भी पकड़ा है जिसे आचार्यों ने परिग्रह माना है। अपरिग्रह से आत्मदर्शन की व्याप्ति बिठाते है मात्र बाह्य
जीव को सम्यग्दर्शन के लिए जिन तत्त्वो का प्रधान वेष से नहीं।
होना बतलाया है वे तत्त्व भी विभाव भावरूप-कर्मरूप चौथे गुणस्थानवी जीव के लिए छहढासा मे स्पष्ट
परिग्रह के ज्ञान कराने और त्याग भाव में ही है और
तत्त्वों का क्रम भी कर्म-परिग्रह को दर्शाने के भाव में ही कहा गया है'गेही पगह मे न रुचे ज्यो जल मे HिI Fमल है।
है और मोक्ष मार्गरूप रत्नत्रय भी अपरिग्रह से ही फलित नगर नारि का प्यार यथा, कादेम हेम अमल है॥
होता है । फिर भी हम 'सम्यग्दृष्टि को आत्मदर्शन होता
है' इसका निषेध नहीं करते, हम तो और गहराई मे उक्त भाव अपरिग्रहरूप ही है। आचार्यों न मा
जाकर उन परिग्रहों (मिथ्यात्व आदि व बाह्यपरिग्रह) के ममत्वभाव को अन्तरंग परिग्रह मे लिया है और इसक
अभाव पर ही जोर देते हैं जो कि मम्यग्दर्शन के होने में बिना ही बहिरंग का त्याग सम्भव है। याद बाह्य म त्याग
और आगे बढ़ने में भी बाधक है। है और अन्तरग मे मूर्छा है तो वह अपरिग्रह भी मात्र
__कहा जाता है कि सम्यग्दष्टि जीव भी, जब तक कोरा दिखावा-छलावा है। हम मात्र बाह्यवेश का ही चार
चारित्रमोहनीय का प्रबल उदय है, चारित्र धारण नहीं अपरिग्रह मे नही मानते। 'सम्यग्दर्शन ज्ञानरमाणि
कर सकता। सो हमे यह स्वीकार करने में भी कोई मोक्षमार्गः', 'निर्मोही नैव मोहवान्' और 'नवतत्त्व सांत
आपत्ति नही–यदि यह निश्चय हो जाय कि अमुक जीव के विकल्प को छोड़ना' व 'द्रव्यान्तरेभ्य: पृथक' भी ता
सम्यग्दृष्टि है या अमुक के अमुक गुणस्थान है। वरना अपरिग्रह की श्रेणी मे हो है।
प्राय: जो हो रहा है, वही और वैसा ही होता रहेगा। हम तो स्पष्ट कहेगे कि समस्त जैन, अरिग्रह से
सम्यग्दर्शन और आत्मोपलब्धि कराने के बहाने परिग्रहसराबोर है और जैन की जड़ मे भी आरिग्रह समाया
संचय चलता रहेगा। आज इसी आत्मदर्शन प्राप्ति की हुआ है। ऐसे में कैसे सम्भव है कि मुर्छा-बार ग्रह सजोते रट मे चारित्र भी स्वाहा हो रहा है। यदि किसी पर हुए आत्मदर्शन हो जाय या सम्यग्दान भी हो जाय?
कोई पैमाना सम्यग्दर्शन और गुणस्थानों की पहिचान का चतुर्थ गुणस्थान का नाम अविरत सम्यग्दृष्टि है। हो तो देखें। खेद यह है कि आज इस पहिचान का कोई इस गुणस्थान के विषय मे कहा गया है कि
पैमाना नही तब लोग सम्यग्दर्शन प्राप्ति के लिए ढोल 'णो इदिएसु विरदो णो जीवे थावरे तसे वापि । पोटे जा रहे है ओर पहिचान का जो पैमाना (अन्तरंगजो सद्दादजिणुत्त, सम्माइट्ठो अविरदा सो॥' बहिरंग) परिग्रह मूच्र्छा के त्याग जैसा है उसकी उपेक्षा
जो इन्द्रिय-विषयो से विरत नहीं है, बस-स्थावर रक्षा कर रहे हैं-वाह्य परिग्रह में भी लिपट रहे हैं जब कि मे सन्नद नहीं है, पर जिन-वचनों, सप्त तत्त्वो में श्रद्धा तीर्थक रो ने उसे भी सर्वथा निषिद्ध कहा है। मात्र रखता है वह अविरत सम्यग्दृष्टि जीव होता है। नागम मे पच्चीस दोषों का वर्णन आता है और सभी पर इस गुणस्थान के लिए मिथ्यास्व (जो घोर परिग्रह है) दोष कर्म (परिग्रह) जन्य होते हैं तथा जब तक इन दोषों और अनतानुवधी चौकड़ी रूप परिग्रह का न होना अनि- का परिहार नही होता तब तक सम्यग्दर्शन निर्दोष नही वार्य है। मोर उनके अभाव म ही सम्यग्दर्शन होता है। कहलाता। इसके सिवाय आगम में सम्यग्दर्शन का मुख्य