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साक्षी भाव
0 श्री बाबूलाल जैन, नई दिल्ली मन से मुक्त होने का मात्र एक ही उपाय है वह है विकार रहा न आगे की, भविष्य की आकुलता रही, साक्षी भाव । साक्षीभाव का अर्थ होता है प्रतिरोध न करे। बीते की याद रही, मात्र साक्षीपन बना हुआ है। क्योंकि जैसे ही प्रतिरोध किया, कर्ताभाव आ जाता है। अगर हम नदी या नालाब मे उतरेंगे तो पानी मैना
हमारे मन में हर समय विचागेका कल्पनाओ का हो जायेगा परन्तु यदि किनारे बैठकर देखते रहें तो कुछ तांता लगा हुआ है, रात सपने देखते हैं, दिन विचार ममा बाद मैला नीचे बैठ जावेगा । किनारे बैठकर देखते चलते हैं हम इन विचारों और विकल्पों के साथ एक हो रहना है। अगर हमने यह क्यो हुआ, ऐसा नहीं होना जाते हैं। किसी विचार को बुरा मान लेते हैं। जिसको चाहिए था नब माक्षीभाव नही बनेगा। परन्तु यह माम बुरा मानते हैं उसको भगाना चाहते हैं। जितना भगाने कर चलें कि जो विचार उठ रहे हैं वही उठने के है उममे का उपाय करते हैं उतना ही वह गाढ़ा होता जाता है। कुछ अच्छा बुरा नहीं है । यह तो कर्म का मला है उसके जैसे गेंद को दीवाल पर जितने जोर से मारो वह उतने अनमार हो रहा है और मैं जान रहा हूँ मैं जानने वाला ही जोर से वापिस आती है । अगर दीवाल पर न मारे तो हूं इनको बदली करने वाला अथवा रोकने वाला नही हूं वापिस ही नही आती। जितने हम विचारो और कलानाओ तब यह साक्षीभाव बनेगा । जहाँ गाक्षीभाव बना, विकल्प का विरोध करते हैं उतना ही उनका घिराव बढ़ता है। का कार्य खतम होने लगेगा। जब मन का काम नही रहा दिन की जगह रात को सपनं मे घिराव हो जाता है। नब संसार ही नही रहा । अब उसको किमी नाम से कहें अत: उनका विरोध मत करो, उनसे लड़ें नहीं, उनको कुछ देर के लिए शांत होकर बैठ जावो। शरीर को निढाल दबाये नहीं। नहीं तो दबाने दबाने मे जिंदगी नष्ट हो छोड दो फिर मन की धारा को देखते रहो, और कुछ भी जायेगी । तब यह सवाल पैदा होता है अगर विचारो को न करो, न मंत्र, न भगवान का नाम । यह तो मन के खेल नहीं दबावे तो अनाचार फैल जावेगा, आचरण बिगड़ हैं। तुम अपने जीवन के ही दृष्टा बनो। खुद का जीवन जावेगा । दबावे नही तब क्या करे ? इसका उत्तर है कि भी ऐसे देखो जैसे वह भी एक अभिनय है। यह पत्नी, विचारों का साक्षी बने अगर दबाते हैं तो कर्ता बन बच्चे, परिवार, धन-दौलन मब अभिनय के अंग हैं। हमे जाते हैं जब कर्ता न बने तो ज्ञाता रह जाते है। यह अभिनय करना पड़ रहा है । यह पृथ्वी की बड़ी मच दर्पण के समान मात्र ज्ञाता रह जावे। न उन विचारो की है। जिसने अपने को कर्ता समझा वही चक गया, जिसने प्रशंसा करनी है, न पश्चाताप करना है मात्र साक्षीभाव अपने को अभिनेता जाना उसने पा लिया। जिसको पाना देखते रहना। जब हम उसको देखते हैं तो वह दृश्य बन है वह दूर नही है । मिला ही हुआ है सिर्फ उसकी रफ जाता है और देखने वाला दृश्य से अलग हो जाता है तब हम पीठ किये हुए हैं। मुंह उधर कर लेना है। यह साक्षीहमारी शक्ति उसमे नही लगती, देखने मे लगने लगती है। भाव ही साधन है और यही साह है। वास चले और जैसे जैसे देखने पर जोर आता जाता है वैसे वैसे दृश्य दूर साक्षी रहे। श्वास भीतर आई हमने देखी, श्वास बाहर होता जाता है। फिर एक समय आता है तब दृश्य नहीं गयो हमने देखी, बस मात्र श्वास के दृष्टा रहना है । उसने रहता मात्र दृष्टा रह जाता है। यही समाधि है। जो हो अपने जीवन मे व्यर्थ को छोड़ दिया और सार्थक को पकड़ रहा है, उठ रहा है उसको दबाने की चेष्टा न रे, उसमें लिया। जब श्वांस का दृष्टा बनना है तब न भविष्य का भला बुरा न माने, मात्र जो हो रहा है उसको जानने को विकल्प बनता है न भूतकाल की याद । मात्र श्वांस को पेष्टा करे और पूर्ण ताकत लगाकर मात्र उसको जाने। आते जाते देखता है। जोर श्वास लेने पर नहीं रहकर श्वास अगर ऐसा हुआ तो हम पायेंगे किन विचार रहा, न
(शेष पृ० २२ पर)