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२४, बर्ष ४, कि. ३
अनेकान्त तारातारा परणिधरस्य स्वरसारा
इधर देवों से शोभित (सुरकान्ते) धन के बीच में साराद् व्यक्ति मुहरुपयातिस्तनितेन ॥१७॥ (वान्ते) तालाब में यह आने जाने वाली (सारासारा) सारासारा सारसमाला सरसीयं सारं
सारस पंक्ति (सारसमाला) जोर से (सारं) कूजन कर कूजत्यत्र बनान्ते सुरकान्ते ।
रही हैं ॥१७६॥ सारासारा नीरदमाला नभसीयं तारं
आकाश मे जोर से बरसती (सारासारा) और शब्द मद्र निश्वनतीतः स्वनसारा। करती हुई यह मेघमाला उच्च और गम्भीर स्वर से गरज धित्वास्गाद्रेः सारमणीद्ध तटभाग
सारं तारं चारुतरागं रमणीयम् । ___संभोग बाद इस अद्रि के श्रेष्ठ मरिणयों से देदीप्यमान सम्भोगान्ते गाति कान्त रमयन्ती
(सारमणीड) अतिशय सुन्दर तट भाग पर आश्रय लेकर सा रन्तारं चारुतरागं रमणीयम् ॥१७६-१७७।। उस पति को जो रमण करने के योग्य है (रंतारं) श्रेष्ठ व विजया पर्वत का वर्णन किया जा रहा है- निर्मल व सुन्दर शरीर वाला है प्रसन्न करने के लिए
यह उत्कृष्ट वेग से बरसने वाली (मारासारा) तारा (रमयन्ती) कोई स्त्री उच्च स्वर से मनोहारी गायन कर के समान अतिशय निर्मल (तारा तारा) यह जलद घटा रही है । इस धरणीधर की एकसी ऊँचाई (समसारान्) वाले शिखरो इस काव्यानद के लिए पं. पन्नालाल जी द्वारा (सानन) के पास पार बार (मुह.) जल्दी मे (हुतं) जोर सपादित अनूदित आदिपुराण प्रथम भाग का महारा लिया से (घनसारात) आती है किन्तु जब गरजती है (स्तनितेन) गया है । रसास्वादन के अरिरिक्त प्रस्तुत लेखक का कोई तब ही व्यक्त होती है (वर्ना पता ही नही चलता) ॥१७५॥ योगदान नही है।
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सही क्या है ? एक प्रश्न जिनसेन प्रथम के हरिवंशपुराण (७५३ ई.) के सर्ग ८, श्लोक १७६-१७७ मे भगवान आदिनाथ के कान कुण्डलों की शोभा का वर्णन इस प्रकार किया है
कर्णावक्षतकायस्य कथंचिद् वज्रपाणिना, विद्धौ वज्रघनौ तस्य वज्रसूचीमुखेन तो। कृताभ्यां कणयोरीशः कुण्डलाभ्यामभात्ततः, जम्बूद्वीपः सुभानुभ्यां सेवकाभ्यामिवान्वितः ।।
ऐसे अक्षतकाय जिन बालक के वज्र के समान मजबूत कानों को इन्द्र वज्ञमयी सूची की नोक से किसी तरह वेध सका था। तदनंतर कानों मे पहनाए हुए दो कुण्डलों से भगवान् इम तरह शोभित हो रहे थे जिस तरह कि सदा सेवा करने वाले दो सूर्यों से जम्बूद्वीप सुशोभित होता है। जिनसेन द्वितीय ने आदिपुराण (८४८ ई.) के चतुर्दश पर्व नोक १० में बताया है
___ कर्णावविद्ध सच्छिद्रो कुण्डलाभ्यां विरेजतुः ।
कान्तिदीप्ती मुखे द्रष्टुमिन्द्राभ्यिामिवाभितो॥ भगगन के दोनो कान बिना भेदन किए ही छिद्र महित थे। इन्द्राणी ने उनमे मणिमय कुण्डल पहनाए थे, जिममे वे ऐसे जान पड़ते थे मानों भगवान् के मुख की कान्ति और दीप्ति को रखने के लिए सूर्य और चन्द्रमा ही उनके पास पहुचे हों।
शंका यह है कि क्या तीर्थंकरों के कान बिना भेदन के जन्मजात सछिद्र होते थे अथवा इन्द्र वज सूची से उनका कर्णभेदन संस्कार करता था? क्या तीर्थ करों की मूर्तियों में कान सनि दिखाये जाते हैं ?
पाठक शंका समाधान सम्पादक अनेकान्त को लिखकर करने की कृपा करें। -मांगीलाल बैन, नई दिल्ली