Book Title: Anekant 1991 Book 44 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 88
________________ १४ वर्ष ४४ ० ३ म्हे बांका मे महांका साहब, पांके महांकी लाज । जा विधि सौं भव उदधि पार हो, 'हितकरि' करिस्यो काज । श्रेष्ठ मां के समान 'दिनकर' भी अपने भक्ति फल के रूप में कोई लौकिक कामना नहीं रखते। वह चाहते हैं केवल प्रभु भक्ति के भाव धारण की निरन्तरता । इससे हो आत्मानुभव की प्रेरणा और मोक्ष मिल सकेगीधरज कर दो जिनराज जी । तारण तिरण सुन्यौ मोहि तार्यो, थांनं म्हांकी लाज जी । भव भव भक्ति मिलो प्रभु यांकी, याही बंध्या धान जी निज आतम ध्यांऊं शिव पांउ 'हितकरि' काज जी ॥ तीर्थंकर नेमिनाथ के जन्मोत्सव और राजुल के पद लिखकर लिकर' ने 'नारसस्य' और मधुर भाव की भी अनुभूति की है। जन्मोत्सव का एक छोटा-स पद है ह एरी श्रानन्द है घर घर द्वार । समुद विज राजा घरां री हेली पुत्र भयौ सुकुमार । जाके जनम उछाह को री एरी, प्रायो इन्द्र सहित परिवार। जाविक जन को मोद सौ से एरी हेली दोनों द्रव्य अपार । नेम कवर सबने को से एरी हेली हितकर' सुखकार ।। निमिनाथ के विरह में सतन राजुल आठो प्रहर प्रिय ध्यान में ही निमग्न रहती है। उसकी यह स्थिति निर्गुण संतो के विरभाव, मीरा आदि मधुर उपासको की मनः स्थिति का प्रतिबिम्ब ही प्रदर्शित करता हैतन को तपति अर्थ मिटि है मेरी, नेम पिया के दृष्टि भर देखूंगी ॥ टेक ॥ जब दरसन पाऊँगी मैं उनको, जनम सुफल करि लेखूंगी । जाम मे ध्यान उनको रहत है, ना जानू कब भेंगी । 'हितकरि' जो कोई पनि मिलावे, जिनके पांयन सीस टेकूंगी ॥ 'बालकृष्ण ५० पदो के रचयिता अशात कवि सेंडू ने दीग निवासी तथा नरपत्येला गोत्रिय खंडेलवाल जैन अभयराम और चेतनराम दो भाइयो की सम्पन्नता और दानशीलता की प्रशसा दो फुटकर छंदों में की है। इन दो भाईयों के पिता का नाम उन्होंने बालकृष्ण बतलाया है uttra जैन कुल जन्म खंडेलवाल निरपतेला, दीग सहर नांमी जास घर है । पिता बालकिरन जाको धर्म हो सौ राम प्रति श्रौर विकल्प जो मन मैं न धरि है । धन सो माता जिन जाये ये भ्रात, कुल के प्राभूषण वित सारू पर दुख हरि है। प्रमेशम चेतन नाम करायो श्री जी को धाम, या तं बड़ाई 'सेदू' ज्यों की त्यो करि है ॥ सेहूं ने बालकृष्ण को धर्मानुरागी बतलाया है अतः इनके द्वारा पद लिखे जाने की सम्भावना स्वाभाविक है । अभी बालकृष्ण के केवल दस पद दूगरपुर के कोटडियान जैन मन्दिर के एक गुटके में प्राप्त हुए हैं । समवशरण में विद्यमान जिनेन्द्र की छवि पर बालकृष्ण की अपार श्रद्धा है मूरति कंसी राजं मेरे प्रभु की। अद्भुत रूप अनुपम महिमा, तीन लोक में। श्री जिननाय जु ध्यान धरतु हैं, परमारथ पर कार्ज । नासा अग्र दृष्टि को धारं मुखवान धुन गाजे । अनुभो रस पुलकत है मन में, श्रासन सुद्ध बिराजं । जाकवि देख इन्द्रादिक, चन्द्र सूरज गन ला धनु अनुराग विलोकति जाको प्रशुभ करम गति भागं । 'बालकुरा' जाके सुमरन से, अनहद बाजे बाजे | जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक आत्मा ही परमात्मा का स्वरूप सन्निहित होने की धारणा के कारण जैन भक्ति काव्य में तीर्थकर भक्ति के अतिरिक्त अध्यात्मउपासना को वडा बल मिला। बालकृष्ण 'चेतन' को ही साहिब मानते हुए पके लिए कृतसंकल्प हैतू है साहिब मेरा चेतन जो । प्रलय अतिसिद्ध स्वरूपी, ऐसा पद है तेरा की। विषय कवाय मगनता मानी किया है जगत में फेरा । पर के हेत करम ते कोनं अजहूँ समझ सबेरा । अपुन पर अपु नहि बिसरो, मोह महानद पंरा । दरसन शुद्ध मान तूं मन मैं भवि तं होय निवेश । प्रभो शक्ति संभार अपनी केवल ज्ञान उजेरा । 'बालकृष्ण' के नाथ निरंजन पायो शिवपुर डेरा ॥ (शेष पृ० १७ पर) ·

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