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कर्नाटक में जैन धर्म
श्रुतकेवली भद्रबाह श्रवणबेलगोल आए । कम-से-कम भग- मन्दिर बनवाया था और (नापद) नगर बगाया था। इस वान महावीर के समय में भी जैनधर्म कर्नाटक में विद्यमान बात के प्रमाण तन देश नन्द राजाओं की सीमा या यह तथ्य हेमांगद नरेश जीवंधर के चरित्र में स्वत मे था। श्री एस. रामामामी अय्यंगर 'कंतल' देश सिस है।
को roughly Karnataka (गोटे तौर पर कर्नाटक) बौडग्रन्थ 'महावंश' का साक्ष्य :
मानते है। इसके अ-1 त कुछ मिन ग्रन्पो मे अन्तिम श्रीलंका के राजा पाण्डकाभय (ईसापूर्व ३७७ से ३०७) नन्द राजा ननद के पार बजाने, उसके गगा मे गड़े और उसकी राजधानी अनुराधापुर के सम्बन्ध मे चौथो हाने या बह जान का सके लालच का उल्लेख करते हैं। शताब्दी के बौद्धग्रंथ 'महावंश' में कहा गया है कि श्रीलका आशय यह कि कान तमिल देश भी नन्दों के अधीन के इस राजा निगंथ जोतिय (निगथ-निर्ग्रन्थ-जैनों के लिए था और इ.7 141 के गाव में यहां के लोगों प्रयुक्त नाम जो कि दिगम्बर का सूचक है) के निवास के लेखकों में अगर हाती रहती थी। लिए एक भवन बनवाया था। वहां और भी निर्ग्रन्थ साधु प्राचीन मानीय : नहाम के विशेषज्ञ श्री हेमचन्द्र राय निवास करते थे। पाण्डकाभय ने एक निर्ग्रन्थ कुंभण्ड के चौधरी ने इन : यॉफ नन्दाज' नामक अध्याय लिए एक मन्दिर भी बनवा दिया था। इस उल्लेख से यह मे लिगया है सिद्ध होता है कि ईसा से लगभग चार सो वर्ष पूर्व श्री "Jain winters refer to the subjugation by लंका मे जैनधर्म का प्रचार हो चुका था और वहां दिगबर Nanda's minister of the whole country down जैन साधु विद्यमान थे। इससे यह भी निष्कर्ष निकलता है to tne seas '' कि वहां जैनधर्म दक्षिण में पर्याप्त प्रचार के बाद ही या अर्थात् "जै लखक इम नात का उल्लेड करते हैं कि तो कर्नाटक-तमिलनाडु होते हुए या कर्नाटक केरल होते नन्द के भन्न : समुद्र पर्यन्त गारे देश को अधीन कर लिया हुए एक प्रमुख धर्म के रूप में प्रतिष्ठित हुआ होगा। था।" यदि जैन लेखकों के पथन मेकछ भी सच्चाई
महावंश में उल्लिखित जैनधर्म सम्बन्धी तथ्य को होनी, नो श्री गण चौधरी उगका उल्लेख नहीं करते। प्रसिद्ध इतिहासकार श्री नीलकंठ शास्त्री ने भी स्वीकार करते हुए 'दी एक ऑफ नन्दाजएण्ड मौर्याज' में लिखा है
दुगरे । . f. ये है उनगे यह मिन होता है कि राजा पांडकाभय ने निग्रंथों को भी दान दिया था।
कि कर्नाटक मे धर्म का 'पमार चन्द्रगुप्त मौर्य और नन्द-वंश:
आचार्य भद्रवाह के श्रवणबेलगोल आने मे आने से पूर्व ही __ महावीर स्वामी के बाद पाटलिपु मे नन्दवश प्रति- हो चुका था. पाटा न.में होता तो चन्द्रगुप्त मौर्य ष्ठित हुआ। यह वंश जैन धर्मानुयायी था। यह ना बारह हजार किमी (नके मा" एक लाख जैन श्रावक सम्राट् खारवेल के लगभग २२०० वर्ष पुराने उम शिला भी रहे होगे) ' माने नाथ नार फर्नाटक नीं आते। लेख से स्पष्ट है जिसमे उसने कहा है कि कलिंगजिन की यह तथ्य इनान न की गाड- रता है fr चन्द्रगुप्त जो मूर्ति नन्द राजा उठा ले गया था, उसे वह वापस मौर्य ने दक्षिण पर भी जि की थी। लाया है। इस वश का राज्य पूरे भारत पर था। कर्नाटक चन्द्रगुप्। पु बन्दुपार और पोते सम्राट के वीदर को महाराष्ट्र से जोड़ने वाली सड़क नदेिड जाती अमान ने भी धन वे को यात्रा की थी। कर्नाटक है। विद्वानों के अनुसार नव (गो) 'नन्द देहरा' उस स्थान मे कुछ स्थानो (. 'चर जि।। पर अशोक के लेख भी का प्राचीन नाम है जो घिसकर नान्देड हो गया है। पाये जाते है । अशोक को बोद्ध बाया जाता है किन्तु यह 'देहरा' जैन मन्दिर के लिए आज भी राजस्थान-गुजरान पूरी तरह सत्य नहीं है। इ. तथ्य के समर्थन में श्री एम. में प्रयुक्त होता है। नांदेड वह स्थान था जहां नन्दो ने जैन एस. रामास्वामी अगंगर ने लिखा है--