Book Title: Anekant 1991 Book 44 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 65
________________ केवल उपादान को नियामक मानना एकान्तवाद है २७ समस्त सहयोगी सामग्री के सद्भाव तथा विरोधी कारण कर्म काण गाया ८७६ में एकांत मा के ३६३ अंगों का के अभाव होने का नियम है। अगर कोई दोनों द्रव्यों में वर्णन किया हैं उनमें १८० किया वादियों के ८४ अक्रिया निर्मित नैमित्तिक सम्बन्ध ना मान कर केवल दो द्रव्यो वादियों के अज्ञानवादियों के ६७ तथा ३२ वैनयिकवादियों को पर्यायों में निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध माने तो वह के भेदों में एक नियतवाद नाम का एकांत मत का भी आगम के प्रतिकूल होगा जैसा कि लेख में पृष्ठ २४ पर वर्णन गाथा ८८२ में किया है। कहा है कि दो द्रव्यों मे निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध नही लेख मे पृष्ठ २४ पर कहा है 'जीव और पुद्गल होता। पर ऐसा आगम मे कही देखने में नहीं आया क्यों अपनी क्रियावती शक्ति से एक जगह से दूसरी जगह जाते द्रव्य का लक्षण सत है और सत को उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य है तब धर्म द्रव्य स्वत: अपन आप निमित्त रूप रहता है। युक्त कहा है और सत का कभी नाश नहीं होता इसलिए यहा प्रश्न उठता है । जब निमित्त कुछ कर्ता ही नही जैसा द्रव्यों की प्रत्येक पर्यायों में सत पना मौजूद रहता है लेख में पृष्ठ २३ म कहा फिर निमित्त को उपस्थिति की इसलिए ऐसा नहीं कहा जा सकता कि दो द्रव्यो में निमित्त क्या आवश्यकता पड़ी इसका यही अर्थ हुआ कि निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध नहीं होता। ऐमा मानने से जिन के विना कार्य नही होता अगर निमित्त के बिना अकेले पर्यायों में निमित्त नैमित्तिक सम्बन्म मानोगे उस समय सत उपादान की योग्यता से ही कार्य होता है तो जीव जव का अभाव होने से द्रव्य का नाश हो जायगा जो असम्भव समस्त कर्मों से छूट जाता है तब ऊर्ध्व गमन स्वभाव होने है इसलिए ऐसा कहना कि दो द्रव्यों में निमित्त नैमित्तिक पर ऊपर को गगन करता है जैसा मोक्षशास्त्र के १०वें सम्बन्ध नहीं होता ठीक नहीं हैं। अध्याय में कहा है तब गमन करते-करते लोक के अंत में जब जो कार्य होना होता है उसी समय दोनो द्रव्यों क्यों ठहर जाता है अलोका काश में भी क्यो गमन नहीं की उसी समय की अवस्थाओ का सयोग सम्बन्ध अवश्य करता है इसका उत्तर उसी अध्याय मे दिया है धर्मास्तिहोता है इसी को निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध कहते है कायाभावात अर्थात् धर्म द्रव्य के अभाव मे क्रियावती अकेले एक कारण से चाहे वह उपादान हो चाहे निमिः, शक्ति के होने पर भी निमित्त (धर्म-द्रव्य) के बिना गमन कार्य नही होता क्योंकि भिन्न-भिन्न प्रत्येक सामग्री को रूप कार्य नही हो सकता इससे स्पष्ट है कि उपादान तथा असमर्थ कारण कहते है और असमर्थ कारण कार्य का निमित्त दोनों के सहयोग से कार्य होता है अकेले उपादान नियामक नहीं है ऐसा जैन सिद्धान्त प्रवेशिका ४०५ पर की योग्यता से नही योग्यता तो दोनों जीव तथा पदगल द्रव्यों मे हमेशा होती है फिर भी धर्म द्रव्य के अभाव होने लेख में पृष्ट २३ पर ये भी कहा है कि 'पदि राग पर गमन रूप क्रिया नही होती जब भी जिस समय जो कार्य के होने में स्त्री निमित्त करता है तो स्त्री राग के मेटने में होना होता है उस समय दोनो द्रव्यो के संयोग होता है भी निमित्त हो जायगी'। ये हम पहिले कह चुके हैं कि तथा विरोधी कारण का अभाव होता है जिसको समर्थ कोई द्रव्य चाहे उपादान हो चाहे निमित्त दोनो स्वतत्र है कारण कहते हैं तब कार्य नियम से होता है । भिन्न-भिन्न एक दूसरे की इच्छा के आधीन नहीं। अगर पुरुष स्त्री प्रत्येक सामग्री को असमर्थ कारण कहते हैं । असमर्थ को देख हर भोगो के चितवन मे लगता है तो राग कारण कार्य का नियामक नही है (जै० सि. प्रवेशिका उत्पन्न हो जायगा और यदि वही पुरुष स्त्री को देख कर ४०५) फिर अकेला उपादान कार्य का नियामक कैसे हो संसार की असारता का विचार करता है तो वैराग्य की सकता है। समय मार की गाथा १३०-१३१ की टीका में उत्पत्ती होगी। विचार करना इसके अपने प्राधीन है स्त्री कहा है-'यथा खलु पुद्गलस्य स्वय परिणाम स्वभावत्वे की इच्छा के प्राधीन नहीं। और यदि किसी एक से कार्य सत्यपि कारणानु विधायित्वात् कार्याणां' अर्थात् पुद्गल को उत्पत्ती पानोगे चाहे वह उपादान हो चाहें निमित्त द्रव्य स्वयं परिणाम स्वभावी होने पर भी जैमा कारण हो एकाम्त नाम का मिथ्यात्व हो जायगा जैसा कि मोमट्टसार उस स्वरूप कार्य हो . है। उसी प्रकार जीव के भी स्वयं

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