Book Title: Anekant 1991 Book 44 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 78
________________ ४, वर्ष ४४, कि.३ अनेकान्त विधान के नो आगम बन्ध विकल्पसादि वैससिक बन्ध अर्थात् एक निगोद के शरीर में द्रव्यप्रमाण से जीवों निर्देश में कहा है कि विषम स्निग्धता और विषम रूक्षता की संख्या सिद्धों की संख्या से और प्रतीतकाल के सर्व में बन्ध और समस्निग्धता और समरूक्षता मे भेद होता समयों की संख्या से अनन्तगुणी है। है। इसके अनुसार ही 'गुणसाम्ये सवृशानाम्' यह सूत्र सन्मति तर्क-आचार्य सिद्धसेन के सन्मति तर्क की कहा गया है। इस सूत्र में जब सम गुण वालों के बन्ध निम्नलिखित गाथा तत्त्वार्थवातिक के प्रथम अध्याय के का प्रतिषेध कर दिया है, तब बन्ध में सम भी पारिणा __२६वें सूत्र में प्राप्त होती है -- मिक होता है, यह कथन पार्षविरोधी होने से विद्वानों को पण्णवयिज्जा भावा अणंतभागोदु अभभिलप्पाणं । ग्राह्य नहीं है। पण्णवणिज्जाणं पुण अणंत भागो सुदणिबदोश१६ भगवती आराधना-तत्त्वार्थवार्तिक के छठे अध्याय के १३वें सूत्र की व्याख्या में कहा गया है कि यद्यपि संघ शब्दों के द्वारा प्रज्ञापनीय पदार्थो से वचनातीत पदार्थ समूहवाची है, फिर भी एक व्यक्ति भी अनेक गुण का अनन्तगुने हैं अर्थात् अनन्तवे भाग पदार्थ प्रज्ञापनीय है धारक होने से एक के भी सघत्व की सिद्धि होती है। और जितने प्रज्ञापनीय हैं और जितने प्रज्ञापनीय पदार्थ इसकी सिद्धि मे भगवती आराधना की निम्नलिखित हैं, उगक अनन्तवं भाग पदार्थ श्रुत में निबद्ध होत गाथा उद्धृत को है जम्बूद्वीप पण्णत्ती-तत्त्वार्थवार्तिक मे 'उक्तं च' सघो सघगुणादो कम्माण विमोयदो हदि सघो। करके एक गाथा उद्धृत की गई है, जो जम्बूद्वीप पण्णत्ती बसणणाणचरित्ते संघादित्तो हवदि सघो।। भ. आ. ७१४ मे मिलती है- ____ अर्थात् गुणसधात को संघ कहते है। कर्मों का नाश णबदुत्तरसत्तसया दससीदिच्चदुतिगं च दुगचवकं । करने और दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र का संघटन करने से तारारविससिरिक्खा बुधभग्गवगुरु अंगिरा रसणी ॥ सघ कहा जाता है। ज. प. १२२६३ मूलाचार-तत्त्वार्थवातिक के सातवें अध्याय के । अर्थात् इस भूतल से सात सो नव्वे योजन पर तारा, उससे दस योजन पर सूर्य, उससे अस्सी योजन ऊपर भ्यारहवें सूत्र की व्याख्या मे कहा गण है कि सत्त्वादि में चन्द्रमा, उससे तीन योजन पर नक्षत्र, उनसे तीन योजन मंत्री आदि भावना यथाक्रम आनी चाहिए । जैसेसमयामि सर्वजीवान् क्षाम्यामि सर्वजीवेभ्यः । ऊपर बुध, उससे तीन योजन ऊपर शुक्र, उससे तीन योजन प्रीति सर्वस स्वः वैरं मे न केनचित् ॥ ऊपर बृहस्पति, उससे चार योजन ऊपर मगल और उससे उपर्युक्त पद्य मूलाचार की निम्नलिखित गाथा का . चार योजन ऊपर शनैश्चर भ्रमण करता है। यह गाथा सर्वार्थसिद्धि में भी उधृत की गई है। संस्कृत रूपान्तर हैखम्मामि सम्वजीवाणं सब्वे जीवा खमतु मे। सोन्दरनन्द-तत्त्वार्थवार्तिक में प्रश्न किया गया है मित्ती मे सव्वदेसु वैरं मनंण केण वि ।। मूला. गा.४३ कि जैसे तेल, बत्ती और अग्नि मादि सामग्री से निरन्तर अर्थात् मैं सब जीवों के प्रति क्षमाभाव रखता हूं, सब जलने वाला दीपक सामग्री के प्रभाव मे किसी दिशाभ जीव मुझे अमा करें। मेरी सब जीवों से प्रीति है, किसी विदिशा में न जाकर वहाँ अत्यन्त विनाश को प्राप्त हो के साथ वैरभाव नहीं है। जाता है। उसी प्रकार कारणवश स्कन्धसन्तति रूप से तत्त्वार्थवार्तिक के 8वें अध्याय के सातवें सूत्र की प्रवर्तमान स्कन्धसमूह जीव व्यपदेशभागी होता है अर्थात् व्याख्या में मूलाचार की निम्नलिखिन गाथा उधत की जिसे जीव कहते हैं, वह राग द्वेषादि क्लेशभावों के क्षय हो गई है जाने से विशा और विदिशा मे न जाकर वही पर अत्यन्त एरिणगोवसरीरे जीवा दम्बप्पमाणदो दिट्ठा । प्रलय को प्राप्त हो जाता है। इसके उत्तर में प्रकलदेव सिडेहि भणंतगुणा सब्वेण वितीयकालेण'। मूला.गा. १२०४ ने कहा है कि प्रदीप का निरन्वय नाश भी पसिब है, क्योंकि

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