Book Title: Anekant 1991 Book 44 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 77
________________ तरवार्थवातिक में प्रयुक्त पन्थ करता हो, उसे कर्म कहते है। जैसे- 'घट करोति' घट षट्खण्डागम-तत्त्वार्यवातिक के प्रथम अध्याय के को करता है, यहां कर्म शब्द का अर्थ कर्मकारक है। कही ३०वे सूत्र को व्याख्या मे षट्खण्डागम को निम्नलिखित पुण्य-पाप अर्थ मे कर्म शब्द का प्रयोग होता है। जैसे-- पक्ति उद्धृत है'कुशलाकुशलं कर्म' यहा कर्म शब्द का अर्थ पुण्य एव पाप 'पञ्चेन्द्रिय असजिपञ्चेन्द्रियादारभ्य आ अयोगकेवलिनः' है। कहीं क्रिया अर्थ मे कर्म शब्द का प्रयोग होता है। अर्थात् असजी पचेन्द्रिय से लेकर अयोगकेवली पर्यन्त जैसे-उत्क्षेपण, अवक्षेण, आकुञ्चन, प्रसारण, गमन ये पचेन्द्रिय है। कर्म हैं। यहां कर्म शब्द का किया अर्थ विवक्षित है। तत्त्वार्थवार्तिक के दूसरे अध्याय के ४६वे मूत्र की उपर्युक्त कुशलाकुशल कर्म का उदाहरण पाचार्य पाख्या में शङ्काकार ने शङ्का उठायी है कि षटखण्डागम समन्तभद्र की आप्तमीमामा की वी कारिका में दिया है। जीवस्थान के योगभग प्रकरण मे सात प्रकार के काययोग पूरी कारिका इस प्रकार है-- स्वामी प्ररूपण में औदारिक काययोग और औदारिक कुशलाऽकुशलं कर्म परलोकश्च न क्वचित् । मिश्र काययोग तिर्य और मनुष्यो के होता है । वैक्रियिक एकान्त-ग्रह रक्तेषु नाय स्व-पर वैरिष ॥८॥ काययोग वक्रियिक मिश्रवाययोग देव, नारकियो के होता युक्त्यनशासन-संबेदनदिन के खन म अमलङ्क- है, ऐगा कहा है। परन्तु यहां तो नियंच और मनुष्यो के देव ने समन्तभद्र के युक्त्यनुशासग को निलिखित कारिका भी वैकियिक शरीर का विधान किया है-इससे आर्षका सहारा लिया है ग्रन्थों में परस्पर विरोध आता है।। प्रत्यक्षबुद्धि क्रमत न पत्र तल्लिद्गगम्य न गदर्थ'लङ्गम्। इग शना के समाधान में कहा गया है कि यह विरोध बचो न धा तद्विषयेण योगः वातद्गत कारमशृणण्वतां ते ।। नही है क्योकि अन्य ग्रन्थो मे इसका उपदेश पाया जाता युक्त्यनुशासन - २२ है। जैसे- व्याख्याप्रज्ञप्ति बंडक के शरीर मंग में वायुजहां प्रत्यक्षबुद्धि का प्रवेण नही है अर्थात् जो गवेदन- कापिव के प्रोदारिक, वैक्रियिक, तेजस और कार्मण ये ४ द्वत प्रत्यक्षबुद्धि (ज्ञान) का विषय नही ।, नर जनुमान- शरीरहे है । मनुष्यो के पांच शरीर बतलाए. हैगम्य और अर्थरूप, लिङ्गरूप, यवनगम्य भी नहीं हो "दिस जाव अवराइविमाण गसियदेवाणमंतर सकता और जिसके स्वरूप को सिद्धि वचनो के डाग केचर कालदो होदि ? जहण्णेण वासपुचत्त। उक्कस्सेण नहीं है, उस सवेदनावत की क्या गति होगी? वह काष्ट बे सागरोवमाणिसादिरेयाणि ॥" से भी बवणगोचर नही है, अतः त्याज्य है। . एखण्डागम-खुद्दाबन्ध २।३।३०-३२ रत्नकरण्ड श्रावकाचार आचार्य ममन्तभद्र ने 'धिकादिगुणाना तु' सूत्र की व्याख्या में उक्त च रस्नकरण्ड श्रावकाचार के २६ नोक में कहा है . कहकर पट्खण्टागम की निम्नलिखित माया दी गई है यदनिष्ट तवतयबच्चानुपसेत्यगत:पि जह्यात् । णिम्स गिदेण दुहिएण लुक्खरस लुक्खेण दुराहिएण । - अभिसन्धिकृतानिरतिविषयाद्योगाद् व्रत भवान ॥८६॥ द्धिम्म लुमेण हवेदि बंधो जहण्णवज्जे विममें समे वा। जो अनिष्ट है, वह छोड़ और जो उत्तम फुल कसन अर्थात् स्नेह का दो गुण अधिक वाले स्नेह से या रूम योग्य नहीं, वह भी छोड़े, क्योकि याग्य विषय से अभि- स, १ का सोधिक गुण वाले रूक्ष या स्निग्ध मे बन्ध प्रायपूर्वक की हुई विरक्तता ही व्रत है। होना है। जघन्य गुण वाले का किसी भी तरह बन्ध नही अकलदेव ने व्रत की परिभाषा उपयुक्त अभिप्राय हो सकता। दो गुण अधिक वाले सम (दो, चार, चार, से प्रभावित हैकर की है। उनक अनुसार--'व्रतमभि- छह नादि का) और विषम गुण वाले (तीन, पाच, सात सन्धिकृतो नियमः" अर्थात् अभिसन्धिकृत नियम बन कह- आदि) का बन्ध होना है। लासा है। बुद्धिपूर्वक परिणाम या बुद्धिपूर्वक पापा का 'बन्ध समाधिको पारिणामिको पाठको आर्षविरोधी स्पाम अभिसन्धि है। , दिखलात हुए तत्त्वार्थवार्तिक में कहा है-पणा मे बन्ध,

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