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गताक से मागे :तत्त्वार्थवातिक में प्रयुक्त ग्रंथ
7 डॉ. रमेशचन्द्र जैन, बिजनौर सस्वार्थवातिक के पंचम अध्याय के ४२वें सूत्र की आदि सूत्र की व्याख्या में भाष्यकार ने, 'पूर्वस्य लाभे भजव्याख्या में कहा गया है कि कोई (तत्त्वार्थाधिगम भाष्य. नीय मुत्तरम्', उत्तरलाभे तु नियतः पूर्वलाभः, लिखा है। कार) धर्म, अधर्म, आकाश और काल में अनादि परिणाम अकलङ्कदेव ने उन्हे वातिक बनाकर उनका आशय स्पष्ट और जीव तथा पुद्गल में सादि परिणाम कहते हैं। किया है। दग्धे 'बीजे यथात्यन्त' आदि पद्य भी उद्धृत उनका वचन ठीक नहीं है। क्योंकि सभी द्रव्यों को द्वया. किया है, जो भाष्य में पाया जाता है तथा ग्रन्थ के अन्त स्मक मानने से ही उनमें सत्त्व हो सकता है। अन्यथा में 'उक्त च' करके कुछ श्लोक दिए हैं, जो भाष्य में
मिलते है। द्रव्यों मे नित्य अभाव का प्रसङ्ग आता है, इनको कैसे
सर्वार्थसिद्धि--पूज्यपाद देवनन्दि की सर्वार्थसिद्धि ग्रहण करना चाहिए।'
नामक वृत्ति को अन्तर्भूत करके अकलङ्क ने अपने तत्त्वार्थ___ 'शुभ विशुद्ध मव्याति' आदि सूत्र के भाष्य में वातिक यथ की
वार्तिक ग्रन्थ की रचना की है। उसकी बहुत सी पक्तियो शरीरों में संज्ञा, लक्षण आदि से भेद बतलाया। अप- को वातिक बना लिया है। बहत-सी पंक्तियों में थोडालकूदेव ने उनका विस्तृत विवे वन किया है। 'सम्यग्दर्शन' बहुत परिवर्ता करके वातिक बना लिया है। जैसेसर्वार्थसिद्धि
तत्त्वार्थवातिक चेतनालक्षणो जीवः १२४
चेतनास्वभावत्वाद्विकल्पलक्षगो जीव. १।४।४ तविपर्ययलक्षणोऽजीवः १४
तद्विपरीतत्वादजीवस्तदभावलक्षणः १२४११५ शुभाशुभकर्मागमद्वार रूप आस्रवः १३४
पुण्यपापागमद्वारलक्षणः आस्रवः ॥४॥५६ आत्मकर्मणोन्योन्यप्रदेशानुप्रवेशात्मकोबन्धः ११४
प्रात्नकर्मगोरन्योन्यप्रदेशानुप्रवेशलक्षणो बन्ध: १४११७ आस्रवनिरोधलक्षणः सवरः १२४
आस्रवनिरोधलक्षणः संवरः १२४।१८ एकदेशकर्मसक्षयलक्षणानिर्जरा ११४
एकदेशकर्मसंक्षयलक्षणा निर्जरा १।४।१६ वृत्स्नकर्मवियोगलक्षणो मोक्ष: ११४
कृत्स्नकमवियोगलक्षणो माक्षः १।४।२० सर्वार्थसिद्धि मे जहां बात संक्षेप मे कही गई ', बहा दार्शनिक और व्याकरणिक प्रसङ्गो पर भी सर्वार्थतत्त्वार्थवानिक मे विस्तार पाया जाता है। विस्तार मे मिद्धि की अपेक्षा वार्तिककार ने विस्तृत ऊहापोह किया है। पहंचने पर अकलदेव की प्रौढ़ शैली के दर्शन होते है। आप्तमीमांसा-तत्त्वार्थवात्तिक के दूसरे अध्याय में सर्वार्थसिद्धि की एक एक पंक्ति के हार्द को खोलने में औदारिक शरीर रूप कार्य की उपलब्धि होने से कामण तत्त्वार्थवालिक का अध्ययन अत्यावश्यक है। उदाहरणार्थ शरीर का अनुमान लगाया गया है । हेतु के रूप में आप्तउपर्युक्त निजरा के लक्षण को समझाते हुए वे कहते है- मीमामा की ६८वी कारिका के अश 'कार्यलिङ्ग हि कारपूर्व सचित कर्मों का तपोविशेष का सन्निधान होने पर णम' को उद्धृत किया है। पूरी कारिका इस प्रकार हैएकदेश क्षय होना निर्जरा है। जैसे मन्त्र या औषधि आदि कार्यभ्रान्ते रणभ्रान्ति: कार्य लिङग हि कारणम् । से निःशक्ति किया हुआ विष दोष उत्पन्न नहीं कर सकता, उभयाभोतरतस्थ गुण जातीतरच न ॥६॥ वैसे ही सर्वविपाक और अविपाक निर्जरा के कारणभूत छठे अध्याय के प्रथम सूत्र की व्याख्या में तत्त्वार्थतपोविशेष के द्वारा निरस्त किए गए व नि:शक्ति हुए कर्म वार्तिक मे कर्म शब्द के अकलङ्कदेव ने अनेक अर्थ सप्रमाण ससार चक्र को नही चला सकते।
बतलाए हैं । कहीं पर कर्ता को इष्ट हो वा कर्ता जिसको