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परमागमस्य बीजं निषिखजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमयनं नमाम्यनेकान्तम्॥
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वर्ष ४४ किरण ३
वीर-सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ वीर-निर्वाण संवत् २५१८, वि० स० २०४८
जलाई-सितम्बर
१९६१
सम्बोधन कहा परदेसी को पतियारो। मन मान तब चले पंच कों, साँझि गिनै न सकारो। सबै कुटुम्ब छोड़ि इतही, पुनि त्यागि चले तन प्यारो ॥१॥ दूर विसावर चलत आपही, कोउ न राखन हारो। कोऊ प्रीति करौ किन कोटिक, अंत होयगो न्यारो ॥२॥ धन सौ रुचि धरम सों भलत, झलत मोह मझारो। इहि विधि काल अनंत गमायो, पायो नहिं भव पारो॥३॥ साँचे सुख सौं विमुख होत है, भ्रम मदिरा मतवारो। चेतहु चेत सुनहु रे 'भैया', आप हो आप संमारो॥४॥
कहा वरदेसी को पतियारो॥ गरब नहि कोने रे ए नर निपट गंवार। मूंठी काया झूठो माया, छाया ज्यों लखि लो रे । कै छिन सांझ सुहागर जोबन, के दिन जग में जोजे रे॥ बेगहि चेत बिलम्ब सजो नर, बंध बढ़े पिति कीजै रे। 'भूधर' पल-पल हो है भारो, ज्यों-ज्यों कमरी भोजे रे॥
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