Book Title: Anekant 1991 Book 44 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 64
________________ २६,४४,०२ के समय अपने परिणामों को संभालता है परन्तु उसके अनेक प्रकार के विकल्प उठते हैं उनका कारण मोहनीय कर्म की खिचाव की ज्यादा शक्ति है' वह भी ठीक नहीं । है क्योंकि अगर मोहनीय कर्म की शक्ति ज्यादा है तो वह जीव शक्ति को कम करके एक दिन नाश भी कर देगा जबकि आगम में द्रव्य को नित्य कहा गया है । सम्यक द्रष्टी के सामायिक के समय ऊल-जलूल विकल्प क्यों उड़ते हैं इसके लिए मोक्षशास्त्र के दशमें अध्याय में कहा है जैसे कुम्हार के द्वारा घुमाये गये चाक से घुमाने की क्रिया बन्द करने के बाद भी चाक काफी देर तक घूमता रहता है उसी प्रकार यह जीव अपनी अज्ञानता के कारण से अनादि काल से पर पदों के संयोग वियोग तथा उनके अनुकूल-प्रतिकूल परिणमन करता आ रहा है जिससे विकल्पों के उठने के संस्कार बहुत दृढ हो रहे हैं जिसको चारित्रमोह कहते है उसी चारित्रमोह के कारण से अनेक प्रकार के ऊल-जलूल विकल्प उठते है न कि मोहनीय कर्म की ज्यादा खिचाव की शक्ति से । यदि यह जीव अपने उपयोग को तत्व विचार मे लगावे तो अभ्यास करते-करते एक दिन विवेक की जागृति अवश्य हो बायेगी पोर अल-जलूल विचार आने बन्द हो जायेंगे। अन्य सभी पदार्थ अपने से भिन्न दोचने लगेंगे इसके लिए समय सार गाथा २०० में कहा है । धात एवं सम्यष्टिः मात्मानं जानाति ज्ञायक स्वमाये । उदयं कर्म विपाक च मुंयति तत्वं विजानन् ॥ २०० सम्यग्द्रष्टि अपने को ज्ञायक स्वभाव जानता है और के यथार्थ स्वरूप को जानता हृथा कर्म के उदय को वस्तु कर्म का विपाक जान उसे छोड़ता है। जिससे प्रागामी कर्मबंध रुक जाता है । जब कर्म की स्थिति समाप्त होने को होती है उस समय उसमें फल देने की शक्ति प्रगट होती है जिसको कर्म का विपाक या उदय भी कहते हैं । उसके पश्चात कर्म निर्जरा को प्राप्त हो जाता है फल देकर भी और बिना फल दिये भी निर्जरा अवश्य होती है। तब कर्म के पतन को रोकने के लिए कोई समर्थं नहीं होता। यहां विशेष है कि कर्म फल जोरावरी से नही दे सकता यदि जीव अपने पुरुषार्थ के द्वारा अपने उपयोग को अपने में लगाये तो कर्म अविपाक निर्जरा को प्राप्त होगा । और यदि जीव पुरुषार्थ चूक गया तो कर्म बंध हो जायगा क्योंकि दोनों द्रव्य स्वतंत्र है एक दूसरे के साथ कोई जोरावरी नहीं कर सकता। इसी माधना के आधार पर सिद्ध पर्याप्त होती है। यहां कर्म के विपाक तथा उदय पर भी विचार करें पुद्गल कम के उदय में जीव के विकारी भाव उत्पन्न होते हैं रागद्वेषादि अर्थात् इच्छाये होना यह कर्म का उदय है कर्म के उदय होने पर उस इच्छा के अनुरूप परिणमन करना या न करना जीव के आधीन है। यदि इस जीव ने अपने पुरुषार्थं की शक्ति से परिणमन को रोक लिया तो आगामी कर्म बंध नहीं होगा पुद्गल कर्म उदय आकर बिना फल दिये चला जायगा जैसा आगम मे कहा है 'आतम के हित विषय कषाय इनमें मेरी परिणति न जाय' प्रर्थात् इच्छाओ के उत्पन्न होने पर अपनी शक्ति के द्वारा उस परिणति को रोके तो बंध रुक जाय। और भी कहा है 'रोकी न चाद निज शक्ति खोय शिवरूप निराकुलता न जोय' । पृष्ठ २७ पर लेख में लिखा है 'फल की प्राप्ति-उदय । यहां उदय के विषय में भी विचार करना है। उदय का अर्थ आत्मा मे विकारी भावो का अनुभव मात्र है नवीन बध नहीं नवीन बंधतो उदय के विशक से होगा अर्थात् उदय के अनुसार परिणमन करने से । कर्म के विपाक से बध नही । यदि जीव अमावधान है तो उदय मात्र होगा और यदि विपाक के समय अपने स्वरूप मे सावधान है। तो बिना उदय आये खिर जायगा, जिसे अविपाक निर्जरा कहा है। फल दो प्रकार होता है उदय को भी फल कहते है और नवीन बंध को फल कहते है नवीन वध जीव के रागद्वेष रूप परिणति का फल है और विकारी भावों का अनुभव मात्र होना पुद्गल कर्मों का फल है। इसके लिए गाथा २०० तथा कलश १३७ और दोनों टीकाओ का गहराई से अध्ययन करे । कारण अनेक प्रकार होते हैं कुछ कारण ऐसे होते हैं जिनके होने पर कार्य हो भी और न भी हो जैसे मुनि लिंग । यदि मुनि लिंग को पहिले बाह्य परिग्रह का त्याग करके समस्त अंतरंग परिग्रह का त्याग कर दिया तब तो केवल ज्ञान रूपी कार्य हो जायगा और जब तक लेश मात्र भी अन्तरंग परिग्रह रहेगा केवल ज्ञान नहीं होगा यहाँ भी

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