Book Title: Anekant 1991 Book 44 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 69
________________ अपरिपही ही प्रारमदर्शन का अधिकारी सेवा सुश्रूषा तक को अपना धन्धा बनाए बैठे हैं-भले ही पर द्राविणी-प्राणायाम किया जाता है वह भी स्व-हित में वे मानस से उनके भक्त न हों। हमे दुख का अनुभव होता नहीं, वह भी इच्छारूपी परिग्रह का ही अंश है। उससे है जब हम ऐसी विपरीत परिस्थितियां देखते हैं। भला, जन का मोह ही बढ़ता है । फलत:--धर्म सेवा भी धर्म के जैन सिद्धान्तानुसार जिस दिगम्बर से लोगो को दिगम्बरत्व लिए होनी चाहिए अन्य किसी सासारिक लाभके लिए नहीं। की ओर बढ़ने की प्रेरणा लेनी चाहिए-त्याग की सीढ़ी जैन के जैनत्व का माप, अपरिग्रही बनने की दिशा चढनी चाहिए उस दिगम्बर के बहाने उसकी आड़ लेकर की मात्रा की घटा-बढी से होता है। जितनी, जैसी परिग्रह परिग्रह अर्जन कैसा? की मात्रा में कमी होगी, प्राणी उतना ओर वैसा ही हमारे भाग्य से हमारे दिगम्बर मुनियो मे, अब ऐसे जैनी होगा और परिग्रह की जितनी जैसी माया बढ़ी होगी साधु भी विद्यमान है, जिनकी प्रखर-प्रज्ञा एवं प्रवचन शक्ति प्राणी उतना और वैसा ही जैन पद से पतित होगा। का लोहा तक माना जा रहा है, जो धर्म के स्वरूप का जैनियों में आज तो स्थिति बिल्कुल विपरीत चल रही है, अपनी वाणी द्वारा, ममर्थ विवेचन करते है लोगो के ज्ञान जो जितना अधिक परिग्रही है वह उतना ही बडा नेता नेत्र खोलने का अपूर्व कार्य कर सकते है-ऐसे मुनियो से । माना जा रहा है और उसे स्वय भी ऐहसास नहीं होता अपरिग्रह की ओर बढ़ने में मार्गदर्शन लेना चाहिए कि वह जैन के स्वरूप को समझे और तदनुरूप आचरण निवत्ति की सीढ़ी पर अग्रसर होना चाहिए, न कि उनके करे। ठीक ही है, जब लोगों का स्वयं लक्ष्मी, वैभव आदि सहारे अर्थ-यश आदि पार ग्रह संजोने की बाट जोहना । परिग्रह मे आकर्षण हो और वे परिग्रही को नेतापद प्रदान जैसा कि कतिपय लोग करते है-उनके पीछे लग जाते करे तो परिग्रही को क्या आपत्ति ? आखिर, महिमा है-जबकि दिगम्बर का घिराव नहीं करना चाहिए। वे चाहता तो ससारी मोही जीव का स्वय का वैभाविकभाव 'एकाकी, पाणिपात्र, निर्जनवासी बने रहें ऐमा प्रयत्न है-जिसकी उसे पहिचान नही । करना चाहिए। क्योकि दिगम्बर माधु राजर्षि नही, अपितु हमारे कथन से लोग सर्वथा ऐसा न मान लें कि ऋषिराज होते है। ऋषिराज ही रहने देना चाहिए । उक्त हमारे सकेत बाह्य में अति मम्पदा-वैभवशालियो के प्रति प्रकार की सभी भावनाएँ परिग्रही मन के नहीं हो सकतीं। ही है । सो ऐसा सर्वथा ही नही है। हमारा मन्तव्य है कि ये तो उसी के हो मकेगी जो स्वयं अपरिग्रही बनने की बाह्य वैभव में राग, तृष्णा और अधिक बढ़वारी के प्रति सीढ़ी पर पग रखने का इच्छक होगा। और ऐमा व्यक्ति आकर्षण न होना भी अपरिग्रही की श्रेणी में बढ़ने का क्रमश: प्रात्म-दर्शन का अधिकारी भी हो सकेगा। लक्षण है और आचार्यों ने इस पर विशेष जोर भी दिया स्मरण रहे-जैन 'जिन' से बना है और 'जिन' है। वैसे भी यदि अन्तरग पर विजय है तो बहिरंग मे जीतने से बना जाता है इस धर्म मे जो श्रावक, मुनि अपरिग्रहीपन अवश्य होगा। ऐसे जीव का आचरण 'जल जैसे भेद है वे भी कमश: जीतने के भाव मे ही हुए है। मे भिन्न कमलवत' होगा-न उसे विशेष धन अथवा श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओ में क्रमशः त्यागरूप जीत यश की चाहना होगी और न ही वह विभिन्न द्राविड़ी होती है और परम दिगम्बरत्व में भी त्याग को पराकाष्ठा। प्राणायाम ही करेगा। वह तो होते हए भी परिग्रहो से ऐसी स्थिति में यदि कोई इच्छा, तृष्णा, कर्म आदि पर पर उदास ही रहेगा और उसके उदास रहने का क्रम यदि हामीसा और उसके उदास रहते का विजय की चेष्टा न करे नो यही कहा जायगा कि 'जैसे जारी रहे तो एक समय ऐसा भी आएगा कि वह अपने में कन्ता घर रहे वैसे रहे विदेश'-- भाई, यह धर्म तो त्याग रह सके। बिना अन्तरंग-बहिरंग परिग्रह के त्याग के आत्मोका धर्म है, इसका लाभ उन्ही को हो सकता है जो त्याग- पलब्धि के गीत गाना भूसे को कूट कर ल निकालने की मय जीवन बिताते हो-बिताने में प्रयत्नशील हों ओर भांति है। इसीलिए कहा है कि अपरिग्रही हो आत्म-दर्शन जिनको मन और इन्द्रियो सम्बन्धी विषयो की अभिलाषा का अधिकारी है। आज रिग्रह को आत्मसात् किए का स्वप्न में भी लालच नहीं आता ह।। अर्थ ही नही, प्रात्मा की जो रटन लगाई जा रही है वह सर्वथा निष्फल यश आदि के अर्जन के भाव में भी जो धर्म सेवा के नाम और चारित्रघातक सिद्ध हुई है-छलावा है। (क्रमश:)

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