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३०, बर्ष ४४, कि०२
भनेकास
हमारे तीर्थंकर आदि महापुरुषान पहिले दृश्य-रूपी कि क्या वे सब गुण और क्रियाएं नि.सार हैं? यदि निःसार पदाथों को चितन का लक्ष्य बनाया----उन्होंने अनित्य हैं तो केवली ने इनका विधान क्यों किया? इसे विचारें। आदि बारह भावनामो के माध्यम से पर-से राग हटाया और यह भी विचारें कि यदि बाह्य क्रिया या निमित्त पहिऔर पर-का राग छोड़ने के बाद स्व मे रह सके । यदि वे चान का अल्प-बहुत्व भी माध्यम नहीं तो परमपद में स्थित पर को अपनाए हुए स्व मे रह पाए हों तो देखें। भला, परमेष्ठियो को पहिचान का माध्यम क्या है ? आखिर यह कैसे सम्भव था कि बाह्य मे अटका रहा जाता और साध्वागार में वणित मूलोत्तरगुण आचार ही तो है अंतर में प्रवेश हो जाता ? आज तो लोग अन्तर-वाहर जिनसे साध्वादि की पहिचान की जाती है। यदि ऐसा दोनों में एक साथ लिप्त होना चाहते है-काम-भोग अरु नही तो हम कैसे कह सकते है कि आज श्रावक नही या मोक्ष पयानो।' सो यह कदापि सम्भव नही है।
मुनि नही। फलतः अन्तरग और बाह्य दोनो को साथ लोग बड़ी-बड़ी चर्चाएं करते हैं । षटकारक, निमित
लेकर चलना चाहिए। उपादान, अकर्तृत्व आदि जैसे कथन सामने आते है। पर,
जब हम चारित्र की बात करते है तब कई निश्चया ऐसी चर्चाएं मोक्षमार्ग मे लगे उन लोगो को हितकारी हो
भासियों को सन्देह हो जाता है और वे चारित्र की परिसकती हैं जो परिग्रहो स दूर-आत्म-चितन मे हो । परि
भाषा पूछते है--उनका कहना होता है कि चारित्र तो ग्रही से एसी नाशा नहीं कि वह इन चर्चाओ से सुलट
अन्तरंग ही है-बहिरंग तो छलावा भी हो सकता है। सो सकेगा-वह तो निमित्ता में फंसा ही रहगा और उस हम स्पष्ट कर दे कि आचाया । बाह्य और अन्तरंग दोनो कर्तृत्व बुद्धि भी बना रहगी। भ्रष्टता का मुख्य कारण प्रकार के चारित्रो को चारित्र म भित किया है। आचार्य यह भी है कि लोग चर्चाओं में तो निमित्त को अकर्ता कहते हैं कि- 'ससार कारणानवृत्ति प्रत्यागूर्णस्य ज्ञानवत: मानते रहे और स्वार्थपूति क लिएानामत्ता का बुटात भा कर्मादाननिमित्त कियोपरमः सम्पचारित्रम्'---अर्थात रहे। ऐसे लोगो के उपदश से लोग निमित्ता को अकर्ता ससार (बंध) के कारणो मे निवान की ओर लगे जानी मान पूजा आदि से विरत होने लग और निमित्त को का कर्म ग्रहण की निमित्तभू। करनी से विराम लेना अकर्ता मानने वाल और व्यवहार को मिया मानने वाले सम्यक्चारित्र है।' इसपे अन्तर ओर बहिरग दोनों प्रकार स्वय से और भक्त बनाने क माह म पच-कल्याणक आदि की क्रियाओ से विराम लेना गमित ह-दोनो ही एक दूसरे निमित्तो का जुटात रह । एस लोगा का सापना चाहिए मे निमित्त है। अत: ज्ञानी जीव अपने ज्ञान के अनुसार था कि यदि निमित्त अकर्ता है ता य उन्हे क्यो जुटात रह? दानो से ही निवृत्त हाना है। जहाँ इसका ज्ञान नहीं पहप्रवचन करना, स्वाध्याय के प्रथ प्रचारित करना भाता चता उसका तो प्रश्न ही नहीं है। सो अमूर्तिक आत्मा आखिर निमित्त है. शिविर आदि लगाना भी निमित्त है, की पकड का तो इसे प्रश्न ही नहीं उठता। ये तो अपने फिर इनकी भरमार क्यो हो रही है ? इत्यादि प्रश्न ज्ञान और इन्द्रियग्राह्यरूपी पदार्थों को पहिचानने में समर्थ विचारणीय है ?
है और उन्ही को पहिचान कर बारह भावनाओ के द्वारा जहां तक 'आचारो प्रथमो धर्मः' की बात है वहाँ यही उनकी असारता का अनुभव कर उनस विरक्त हो सकता मानना पड़ेगा कि बाह्याचार अतरग की प्रवृत्ति को ओर है और पर से विरक्त होने पर ये स्वय में रह सकता है अन्तरंग की प्रवृत्ति बाह्याचार को निमित्त है और इन जब कि आज लोग अरूपी आत्मा की पकड़ की बात निमित्तो को जुटाए बिना उद्धार नहीं। फिर चाहे वे करते हे और दश्य रूपी को जकड़कर पकड़े रहते हैं । ऐसा निमित्तकर्ता हो या उदासीन हो--कार्य तो उन्ही के माध्यम विपरीत-परिग्रह मार्ग जैन के ह्रास का कारण हुआ है से होगा। कदाचित् तत्त्व दृष्टि से निमित्तका न मी हो परिग्रही को आत्म-दर्शन नही होता। तो भी क्या? श्रावक और माधु के सभी गुण और सभी आज तो प्राय ऐसा भी देखने में आ रहा है कि लोग क्रियाएँ उसके पद की भापक है और वे सब निमित्त है- परिग्रह के चक्कर मे अधिक है। कुछ लोग तो अपरिऐसे में वे कर्ता है या नही यह प्रश्न नहो, प्रश्न तो गह है ग्रहियों से भी परिग्रह प्राप्त करने को कामना मे उनकी