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होती। नारी के गुप्त अंगों में सदाकाल असंख्यात जीवों की उत्पत्ति होती रहती है।
भ० महावीर को अन्यायी कहना सर्वथा ब्रह्मचारिणी जी के अहम्भाव का सूचक है-म० महावीर की वाणी से तो वह वस्तुस्थिति ही प्रकट हुई— जो पूर्व तीर्थंकरों ने कही । ये ही बातें अर्जिका को मुनि से छोटा दर्जा देती हैं। आश्चर्य कि मुनि को नमस्कार करने न करने की जो बात माता श्री ज्ञानमती को स्वयं आज तक न सुझी वह कुमारी कौणल जी को सहसा कैसे सुझ गई ? कहीं यह दिगम्बरों के प्रति बगावत का चिह्न तो नहीं ?
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कुमारी कौशल जी को सुना जाता रहा है कि उन्हें कट्टर श्रद्धा और परिपक्व ज्ञान है। उनके उक्त महावीर के प्रति बगावत करने के बयानों से तो ऐसा नहीं लगा । उन्होंने तो स्वयं कहा कि मैं आगम के विरुद्ध बोल रही हूं' । आखिर, यह सब क्यों ? यह उन्हें और बिचारकों की स्वयं सोचना है और यह भी सोचना है कि क्या किसी दि० त्यागी द्वारा खुले रूप में ऐसे बयान दिए जाना धर्म के प्रति बगावत नहीं ? जब कि हमे तो दि० आगम ही प्रमाण है ।
२. आत्मा को देखने दिखाने वाले जादूगर
अर्सा हुआ जब परिग्रह को आत्मसात् करते हुए आत्मोपलब्धि की बात करने वाले किसी पन्थ का जन्म हुआ । भोले लोग बिना तप-त्याग के ही आत्मोपलब्धि जान, खुश हो गए - बातों की ओर दौड़ पड़े। नतीजा सामने है - उन्हें भात्मा तो मिली नही; उनमें कितने ही परिग्रह के पुंज अवश्य हो गए ।
जैनियों में आत्मोपलब्धि के लिए बारह भावनाओं पर जोर दिया गया है, सभी महापुरुषों ने इनका चितवन कर ही वैराग्य लिया है। अब तक की सभी रचनाओं में इन्हीं की रचना अधिक संख्या में हुई हैं । ५१ प्रकार की बारह भावनाएं तो हमने देखी हैं- कुन्दकुन्दादि की 'वारसाणुबेखा' आदि तो इस गणना से पृथक है।
आत्मा जैसा अरूपी द्रव्य केवल ज्ञानगम्य है और केवलज्ञान दिगम्बरस्व को पूर्ण साधना द्वारा, घातिया कर्मों के क्षय पर होता है । फलतः - आत्मोपलब्धि के लिए पूर्ण दिगम्बरत्व अपरिग्रहत्व की प्राप्ति आवश्यक है। और अपरिग्रहत्व के लिए बारस भावनाओं द्वारा परस्वभाव का चिन्तन ( अनित्यादि विचार) आवश्यक है । "पर" से राग छूटते ही आत्मोपलब्धि होती है किसी जादूगर के उपदेश से आत्मोपलब्धि सर्वथा ही अशक्य है ।
जैसे जादूगर के जादू से जादूगर स्वयं प्रभावित नहीं होता- जादू की बनावट जानता है, धन्दा चलाने के लिए जादू को अपनाता है वैसे ही आत्मोपलब्धि की राह दिखाने की बात करने वाले कई जादूगर अपनी यशख्याति आदि के लिए इस पदे में लगे हैं—उन्हें आत्मी पलब्धि से क्या ? अन्यथा, उनमे कोई तो परिग्रह से दूर हुआ होता, क्रमशः परिग्रह के कम करने में लगा होता या सच्चा मुनि बना होता ठीक ही है--जादूगर को जादू से काम धन्दा चलाने से काम उसे आत्मोपलब्धि से क्या और अपने जादू से प्रभावित होने से क्या ?
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- संपादक
कागज प्राप्ति :- श्रीमती अंगूरी देवी जैन (धर्मपत्नी श्री शान्तिलाल जैन कागजी) नई दिल्ली-२ के सौजन्य से