Book Title: Anekant 1991 Book 44 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 47
________________ बसुनन्विकृत उपासकाध्ययन में व्यसनमक्ति वर्णन ३. मांसदोष-वर्णन :-- जो मुक्त के श है त जिनके रोंगटे भय के मारे ___मांस दोष का वर्णन करते हुए वसुनन्दि ने कहा है खडे हो गये हैं, तथा जो अपनी ओर पीठ करके मंह मे कि मांस को खाने से मनुष्य का दर्प बढ़ता है। दर्प के तृण को दबाये हुए भाग रहा है. मे अपराधी भी दोन बढ़ने से मनुष्य के अन्दर नाना प्रकार की इच्छायें जागत जीवो को शूरवीर नही मारते हैं। जिस प्रकार गौ, ब्राह्मण होती हैं । इन इच्छाओ के प्रबल होने पर वह शराब तथा और स्त्रियों के मारने में महापाप होता है। उसी प्रकार जुआ आदि का सेवन करता है और उनके दोषों को भी अन्य प्राणियों के घात में भी महापाप होता है। अतः भोगता है। शिकार खेलने के पाप से रह जीव संसार में अनन्त दुःख को प्राप्त होता है। इसलिए देश विरत श्रावकों को अनः __ मांस भक्षण के दुष्परिणामो मे वसुनन्दि ने एक चन्द्र व्यसनी के साथ-साथ शिकार का भी त्याग करना पूर के बक राजा का उदाहरण दिया है। एक-चन्क्र चाहिए। नामक नगर मे मांस खाने से गद्ध बक राक्षस राज्य पद पारद्धिदोष का दृष्टान्त भी वसुनन्दि ने पारम्परिक से प्रष्ट हुआ तथा अपयश से मर कर नरक में गया। ही दिया है। लिखा है-गजा ब्रह्मदत चक्रवर्ती होकर ४. वेश्यादोष-वर्णन': तथा चौदह रत्नों के स्वामित्व को प्राप्त होकर भी शिकार खेलने से मर र नरक में गया और तरह-तरह के कष्टो वेश्यादोष का वर्णन करते हुए वसुनन्दि ने लिखा है को सहता रहा। कि जो कोई भी मनुष्य एक रात भी वेश्या के साथ समागम करता है, वह कारू, किरात, चाहाल, डोम, पारथी ६. चौर्यदोष-वर्णन" : आदि का जठा खाता है। क्योंकि वेश्या इन सबके साथ व्यसनों के क्रम में छठे स्थान पर चौर्यदोष का वर्णन निवास करती है। वेश्या हर एक के सामने उसको चाटु- करते हा वसुनन्दि ने लिखा है कि-दूसरे को धन चुराने कारिता करती है और अपने को उसी का बताती है, वाला मनुष्य इस लोक तथा परलोक में असाता बहुल, जिससे नीच मनुष्य उसकी दासा स्वीकार करते हुए अर्थात् प्रचुर दुःखो मे भरी हुई अनेको यातनाओ को पाता वेश्या के द्वारा किये गये अपमानों को भी सहन करता है। है और कभी भी सुख नहीं पाता। पराये धन को हरकर सबकी नजरो से बचने के लिए इधर-उधर भागता है। वेश्या संसर्ग जनित पाप से जीव घोर ससार-सागर चोर अपने माता-पिता, गुरू, मित्र, स्वामी और मे भयानक दुखों को प्राप्त होता है । इमलिए मन, वचन, तपस्वी आदि को भी कुछ नही गिनता, उनके पास भी काय से वेश्या गमन का सर्वथा त्याग करना चाहिए। वेश्यागमन के दुष्परिणामों को बनने के लिए वसुनन्दि ने जो कुछ पाता है, उसे भी बलात् हरण कर लेता है। चोरी करने वाला व्यक्ति आत्मा के विनाश को, लज्जा, चारुदत्त का उदाहरण दिया है। सभी विषयों में निपुण होने पर भी चारुदत्त वेश्यावृत्ति के कारण धन खोकर घोर अभिमान, यश और शील के विनाश को तथा परलोक में दुःख पाया और परदेश जाना पड़ा। भय को भी कुछ नही गिनता और हमेशा चोरी करने का साहस करता है। चोर व्यक्ति इस लोक तथा परलोक मे ५. पारविदोष-वर्णन : भी अनन्त दु ख को पाना है। इसलिए श्रावक को चोरी पाचवें व्यसन के रूप में वसुनन्दि पारद्धिदोष अर्थात् का त्याग करना चाहि । न्यासापहार भी चोरी ही है। निरीह जीवो का शिकार करने से प्राप्त दोषों का वर्णन न्यासापहार में वसुनन्दि ने श्रीभूति का उदाहरण दिया है। करते हुए कहते हैं कि-सम्यग्दर्शन का प्रधान गुण यतः न्यासापहार अर्थात् धरोह को अपहरण करने के अनुकम्पा अर्थात् दया कही गयी है। अत: शिकार खेलने दोष से दह पावर श्रीमति आर्तध्यान से मरकर संसारवाला मनुष्य सम्यग्दर्शन का विराधक होता है । सागर में दीर्घकाल तक फिरता रहा।

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