Book Title: Anekant 1991 Book 44 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 50
________________ नियमसार का समालोचनात्मक सम्पादन ['नियमसार का समालोचनात्मक सम्पादन' योजना के अन्तर्गत तैयार प्रारंभिक निवेदन विभगत तथा कृन्कृम्य के विशेष अध्येताओं के सम्म प्रस्तुत है। लेखक ] । नियमसार की प्राकृत गाथाओ का मूलपाठ सम्पादन के विशेष उद्देश्य से यहां प्रस्तुत है। मुद्रित प्रतियों में प्राकृत पाठ अत्यधिक अशुद्ध है। इससे अनुवाद एव अध्ययन भी प्रभावित हुए हैं। नियमसार पर पी-एच० डी० उपाधि के लिए अनुसन्धान कार्य करते समय उक्त तथ्य सामने आये प्राकृत पाठ अशुद्ध होने से भाषाशास्त्रीय अध्ययन सम्भव नही हुआ । इन बातों पर अनुसन्धान कार्य के मार्गनिर्देशक आचार्य गोकुलचन्द्र जैन से निरन्तर विचार-विमर्श हुआ। उन्होंने नियमसार का मानक संस्करण तैयार करने पर बल दिया । सम्पादन योजना बनवाई। उसे विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को भिज वाया । सोभाग्य से प्रायोग ने योजना स्वीकृत कर ली और मुझे "रिसर्च एशोसिएटशिप अवार्ड" की । डा० ऋषभचन्व जैन 'फौजदार ' किये गये मूल प्राकृत पाठ का यह नियममार का प्रस्तुत मूल प्राकृत पाठ उक्त सम्पादन योजना का एक अंग है। इसका आधार अद्यावधि प्रकशित विभिन्न सस्करण हैं । नियनसार सर्वथम सन् 1916 में जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई से प्रकाशित हुआ । इसका सम्पादन शीतलप्रसाद ने गोधो के दि० जैन मन्दिर, जयपुर की एक हस्तलिखित पाण्डुलिपि के आधार पर किया है । बाद के दशकों में नियमसार के अनेक प्रकाशन हुए है उन सभी में मूल प्राकृत पाठ व पुनर्मुद्रित है किसी मे भी पाठ को शुद्ध करने का प्रयत्न नहीं किया गया। बाद के प्रकाशनों में अशुद्धियां तथा पाठ भेद बढ़ते में गये हैं। मुद्रण की त्रुटियां अलग है। कुछ जान-बूझकर भी पाठ परिवर्तित किये गये है। पं० बलभद्र जैन ने प्रयत्नपूर्वक 255 पाठ परिवर्तित किये है | व्याकरण और छन्दोनुशासन के अनुसार पाठ बदले गये हैं । कुछ सस्करणो मे प्राकृत पाठ को सस्कृत छाया के अधिक निकट लाने के लिए बदला गया है। किसी भी संस्करण मेनियमसार की उत्तर तथा दक्षिण भारत में उपलब्ध प्राचीन पाण्डुलिपियों का उपयोग नही किया गया । सम्पादन के अन्य स्वीकार्य मानक भी नही अपनाये गये । त्रुटिपूर्ण पाठ के कारण कई स्थलों पर अर्थ मे सगति नहीं बैठती गाथाओं का गेयात्मकतत्व भी प्रभावित हुआ है । प्राचीन पारम्परिक सिद्धान्त ग्रन्थों की भाषा को बाद में लिखे गये व्याकरण एवं छन्दशास्त्र के अनुसार परिवर्तित करना सम्पादन नियमो के विरुद्ध है । इससे प्राचीन भाषा का स्वरूप एवं स्वभाव विकृत होता है । अब तक नियमसार के 15 संस्करण उपलब्ध हुए है । इस मूल प्राकृत पाठ को तैयार करने में इनका उपयोग किया गया है। इनके अतिरिक्त कुछ अन्य सस्करणो की भी जानकारी मिली है। उन्हें प्राप्त करने का प्रयत्न किया जा रहा है । उक्त संस्करण संस्कृत टीका, हिन्दी, अंग्रेजी, गुजराती या मराठी अनुवाद के साथ प्रकाशित हैं। नियमसार के हिन्दी और गुजराती पद्यानुवाद भी हुए हैं। 1916 ई० प्रथम संस्करण मे एक पाण्डुलिपि का उपयोग हुआ है । सोनगढ़ से 1951 में प्रकाशित गुजराती संस्करण में तीन पाण्डुलिपियों को सूचना है उनका परिचय वहाँ उपलब्ध नहीं है। बाद के संस्करणों में पाण्डुलिपियों का उपयोग नही किया गया। किसी भी संस्करण मे पाण्डुलिपियों की सूचना भी नही है । पिछले दशक में नियमसार के सर्वाधिक प्रकाशन हुए हैं। कुकुर का द्विसहस्राब्दि समारोह भी दो वर्ष तक मनाया गया, किन्तु कहीं से भी कुन्दकुन्द के ग्रन्थो के प्रामाणिक सस्करण तैयार करने की योजना सामने नही

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