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१८, वर्ष ४४, कि०२
अनेकान्त
और बाहों में भुजबन्ध है। कटि प्रदेश में मेखला है अगुठे से सिर तक को अवगाहना 16 फुट 8 इंच है। जिसमें छोटी छोटी घंटिकायें लटक रही हैं। पैरों में तीन- आसन को नीचाई 19 इच है। प्रासन सहित प्रतिमा की तोन कड़े और पायल धारण किये हैं।
अवगाहना 18 फुट 3 इंच है। प्रतिमा पर मटियाले रंग इन इन्द्रों के नीचे दोनों ओर एक-एक पुरुषाकृति
का चमकदार पालिश है। यह प्रतिमा भी आततायियों की अंकित है। ये दोनों पुरुष रत्नाभरणों से विभूषित है।
ऋर दष्टि से ओझल न हो सकी। इसका वाहभाग व दायां इनके सिरों पर तारांकित किरीट हैं। कानों में गोल
हाथ, नासिका और पैरो के अंगूठे खण्डित कर दिये गये कंडल हैं। बाहुओं मे भुजबन्धन और हाथों में कंगन धारण
थे जो नये बनवाकर जोड़े गए है । पं० पन्नालाल शास्त्री किये हैं । इनके कटि प्रदेश में मेखला भी अकित है । दोनो
साढमलवालों ने 72 तोला पन्ना प्राप्त करके पालिश हाथों में ये पुष्प धारण किये हैं। इनके हार नाभि प्रदेश
कारायी थी किन्तु पालिश का पूर्व पालिश से मिलान का स्पर्श कर रहे हैं। इनकी नुकीली मूंछ और दाढ़ी भी
नही हो सका है। जोड स्पष्ट दिखाई देते है। सिर के है। वेश-भषा से दोनों कोई राजकुमार या श्रेष्ठी पुत्र केश घुघराले है। हथेलियों पर कमल पुष्पों का सुन्दर प्रतीत होते हैं। पं. बलभद्र जैन ने इसे शान्तिनाथ- अंकन हआ है। प्रतिमा के निर्माता जाहड़ ओर उदयचन्द्र की प्रतिमायें प्रतिमा इतनी मनोज्ञ है कि जो एक बार दर्शन कर होने की उदघोषणा की है जो तर्क संगत प्रतीत होती है। ता है वह प्राकृष्ट हए बिना नहीं रहता। उसको दर्शना. आसन
भिलाषा कम नही होती। इस शताब्दी के अद्वितीय सन्त प्रतिमा जिस आसन पर बिराजमान है उसके मध्य परम पूज्य गणेशप्रसाद जी वर्णी ने इस प्रतिमा के दर्शन में चार इंच स्थान मे चक्र उत्कीर्ण है। इसमे बाईम आरे करके इस प्रतिमा को उत्तर भारत का गोमटेश्वर का कारों के मध्य से एक रेखा नीचे की पोर जाती हुई था। प्रसिद्ध सन्त आचार्य विद्यासागर महाराज को
संभवतः चक्र के दो आरे इस रेखा मे विलीन आकृष्ट होकर यहां जंगल में चातुर्मास स्थापित करना हो गये हैं। आरों की संख्या चौबीस ही रही ज्ञात होती पड़ा। इमको मनोशता देखते ही बनती है। है। इस चक्र की दोनों ओर आमने-सामने मुख किये चिह्न
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि स्वरूप दो हरिण अकित हैं । वे पूछ ऊपर की ओर उठाए हए वर्तमान मे यह प्रतिमा अहार (टीकमगढ़) क्षेत्र मे हैं।बागेके पर मुड़ हुए है। मुख और शीर्ष भाग खडित है। मन्दिर सख्या एक के गर्भालय में विराजमान है। यह
मन्दिर सर्वाधिक प्राचीन मन्दिर है। यहाँ शान्तिनाथचिह्न स्थल के नीचे 9.इच चौड़े और 31 इंच लम्बे पाषाण खंड पर संस्कृत भाषा और नागरी लिपि मे9 प्रतिमा के विराजमान होने से यह शान्तिनाथ-मन्दिर के
नाम से विश्रुत है। पंक्ति का लेख उत्कीर्ण है जो प्रस्तुत लेख के आरम्भ मे ही
यह स्थान अतीत मे वैभव और समृद्धि का केन्द्र रहा बताया जा चुका हैं। इस अभिलेख की प्रत्येक पंक्ति एक
है। समय ने फरवट बदली। यह जन शून्य हो गया। इंच के स्थान में है। सातवी पंक्ति का मारम्कि
अशा अश
यहा सघन वन हो गया। जगली क्रूर पशु रहने लगे। भग्न है। अभिलेख के मध्य मे एक पुष्प अकित है। क्षेत्र
ईसवी 1884 में स्व. बजाज सबदलप्रसाद जी के मंत्री डा० कपूरचन्द्र जी टीकमगढ़ इस अभिलेख को
नारायणपुर तथा वैद्यरत्न ५० भगवानदास जी पठा ढड़. आज भी सुरक्षित रखे हुए है । उनका धार्मिक-स्नेह सराह
कना (अहार का पूर्व नाम) आये । यहाँ सर्व प्रथम उन्हें नीय है।
लकड़हारों और चरवाहो से विदित हुआ था कि समीपप्रतिमा-परिचय
वर्ती जगल मे एक टीले के खण्डहर मे एक विशालकाय यह भव्य प्रतिमा 22 फुट 3 इंच ऊंचे और 4 फुट ।
प्रतिमा है जिसे लोग 'महादेव' के नाम से पूजते हैं। दोनो 7 इंच चोड़े देशी पाषाण के एक शिलाखण से खड्गासन व्यक्ति अनेक ग्रामवासियों को लेकर वहाँ गये। मसालें मुद्रा में शिल्पी पापट द्वारा निर्मित की गई थी। इसकी जलाकर उन्होने खण्डहर मे प्रवेश किया और इस प्रतिमा