Book Title: Anekant 1991 Book 44 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 60
________________ १ -मकान्त mकि.. पृष्ठ पंक्ति २८१ २८३ २८६ २९२ अशुद्ध जेणोघेण सारिच्छेएगत्तं? क्योंकि, लम्धि के उपशमसम्यग्दृष्टि हुई थी साथ उपापद क्षेत्र परूपणा डेढ़ राजु पर समाप्त २२२ १९२ २६३ २६६ २९६ ३०५ असंख्यातवा बन जाना है। असंख्यातवा छोड़कर पदों के उपपा पद आहारएसु सम्भवित देशोनाः । सयोगिकेवलिनां ३०७ ३०९ ३०६ जेणोघेण सारिच्छो एगत्त? क्योंकि, एक लब्धि के उपशमसम्यग्दृष्टि हुए भी साथ उपपाद क्षेत्रप्ररूपणा डेढ़ राजु पर तेजोलेश्या वालों का उपपाद क्षेत्र समाप्त असंख्याता बन जाता है। असंख्यातवा छोड़कर शेष पदों के उपपाद पद अण्णाहारासु सम्भावित देशोनाः । असयतसम्यग्दष्टिभिः लोकस्या संख्येय . भागः षट्चतुर्दशभागाः वा देशोनः। सयोगिकेवलिना स्वय (अन्यरूप) परिणमित प्रवृत्त सादिसपर्यवसानश्चेति । निर्जीर्णाः क्योंकि सभी राशिया प्रतिपक्ष सहित पाई जाती है। प्रतिभग्न होने के काल सहित "सव्वद्धा" उत्कृष्टकाल की (अन्तर्मुहूर्त की) हो गया, मथवा मिथ्यादृष्टे अपवर्तनाघात से असंखेज्जासखेज्जाणो प्रतरपल्य पोग्गलपरियट्टेसु पुण्णेसु [एकेन्द्रियेषु आवल्यसंख्येय भागप्रमितपुद्गलपरिवर्तनः अनन्तकालात्मकः परिभ्रमणकालः । (दृष्यताम् पृ. ३८८ 'सूत्र १०९' इत्यस्य धवला टीका) स्वय परिणमित प्रवृत्त ३२१ ३२४ ३३२ ३३६ १४ ३४५ ३४६ सादिसपर्यवासनश्चेति निर्जीणाः कि क्षय होने वाली सभी राशियो के प्रतिपक्ष सहित पाई जाती हैं। प्रतिभाग कालसहित 'सर्वाता' एकसमय की हो गया। पुनः मिथ्यादृष्ठे उद्वर्तनापात से असंखेज्जासंखेज्जाणि प्रतर, पल्य पोग्गलपरियट्टेसुप्पण्णेसु २५४ २७ ३६५ ३७२ १८३ 1८६ ३८६

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