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वसुनन्दिकृत उपासकाध्ययन में व्यसनमुक्ति वर्णन
श्रीराम मिश्र, रिसर्च फैलो, प्राकृत एवं जैनागम विभाग, वाराणसी
होकर पापमयी अनेक अकायों को करता है। जुआ खेलने वाले पर स्वयं उसकी माता तक का विश्वास नही रहता। इस तरह जुआ खेलने में अनेक भयानक दोष को जानकर उत्तम पुरुष को इसका त्याग करना चाहिए ।
शौरसेनी प्राकृत वाङ्मय मे वसुनन्दिकृत उपालकाध्ययन का महत्वपूर्ण स्थान है। इस ग्रन्थ मे धावक के आचार-विचार का वर्णन किया गया है। श्रावकाचार पर संस्कृत में अनेक ग्रन्थ प्राप्त होते हैं, किन्तु शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध वसुनन्दि का उपासकाध्ययन श्रावकाचार का स्वतन्त्र रूप से विवेचन करने वाला एकमात्र ग्रन्थ है ।
वसुनन्दि श्रावकाचार मे धावक के प्रायः सभी कर्तव्यों का वर्णन किया है, तथापि "व्यसनमुक्ति" का विस्तार से वर्णन किया गया है । व्यसनमुक्ति के अन्तर्गत सात व्यसनों और उसके सेवन से प्राप्त होने वाले फल का विस्तार से वर्णन किया गया है। दर्शन श्रावक के वर्णन प्रसंग में वसुनन्दि ने सातो व्यसनों का नाम बताते हुए उनके सेवन से होने वाले दुष्परिणामों का भी वर्णन किया है।
जुआ खेलना, शराब पीना, मांस खाना, वेश्यागमन करना, चोरी करना, शिकार खेलना और परदारा सेवन करना, ये सात व्यसन दुर्गतिगमन के कारणभूत पाप है। इन सातो व्यसनों का वसुनन्दिने वर्णन किया है, जो संक्षेप में इस प्रकार है
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१. द्यूतवोष वर्णन :
जुआ खेलने वाले पुरुष के क्रोध, मान, माया और लोग ये चारों कषाय तीव्र होती है, जिससे जीव अधिक पाप को प्राप्त होता है। उस पाप के कारण यह जीव जन्म, जरा, मरणरूपी तरंगों वाले दुःखरूप सलिल मे भरे हुए और चतुर्गतिगमन रूप आवतों से संयुक्त संसार समुद्र में परिभ्रमण करता है। उस संसार मे जुआ खेलने के फल से यह जीव शरण रहित होकर छेदन, वन, कर्तन आदि के अनन्त दुःख को पाता है ।
जुआ खेलने से अन्धा हुआ मनुष्य अपने माता-पिता तथा इष्ट मित्र आदि को कुछ न समझते हुए स्वच्छन्द
द्यूतक्रीड़ा के दुष्परिणामों में राजा युधिष्ठिर का उदाहरण प्रसिद्ध है। वन ने लिखा है कि परम तत्ववादी राजा युधिष्ठिर जुआ के सेलने से राज्य से भ्रष्ट हुए तथा पूरे परिवार के साथ नाना प्रकार के कष्ट को सहते हुए बारह वर्ष तक वनवास में रहे' ।
२. मद्यदोष-वर्णम' :
द्यूतदोष के समान ही वसुनन्दि ने मद्यदोष का भी सुन्दर ढंग से चित्रण किया है। मद्यपान से मनुष्य उन्मत्त होकर अनेक निंदनीय कार्यों को करता है, और इसी लिए इस लोक तथा परलोक मे अनन्त दुःखो को भोगता है। शराब पीने वाला लोक मर्यादा का उल्लंघन कर नाना प्रकार के कुकृत्यों को करता है। वह बेसुध होकर अपने धन का नाश करते हुए इधर-उधर भटकता है तथा अनेक पापों का भागी होता है । उस पाप से वह जन्म जरा, मरणरूप क्रूर जानवरों आकीर्ण संसार रूपी कान्तार मे पड़कर अनन्त दुख को पाता है। किसी मनीषि ने कहा है कि- "शराब वह दीमक है, जो मनुष्य के दिमाग को घाट लेता है तथा वह मनुष्य जो भी कुकर्म कर दे, उसके लिए असम्भव नहीं ।" इम तरह मद्यपान के अनेक दोषो को जान करके मन, वचन और कृत कारित और अनुमोदना से इसका त्याग करना चाहिए। मद्यपान के परि णाम स्वरूप यादव कुल का विनाश हुआ। वसुनन्दिने इसे उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया है। एक बार उद्यान में कीड़ा करते हुए यादव ने प्यास से व्याकुल होकर पुरानी शराब को जल समझकर पी लिया, जिससे वे नष्ट हो गये ।