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२० वर्ष ४४, कि० १
हो गया अथवा संक्रमण हो गया अथवा देशघाती आदि रूप होकर निर्जर गया । कर्म अपना समय पूरा होने पर निर्जर होने को प्राया । हमने जितना फल लिया उतना उदय कहलाया बाकी उदयाभावी क्षय हो गया। अगर ज्यादा लेने की पेष्टा को तो उदिग्गा हो गयी। यह हमारे पर निर्भर है हम कितना फल लेते है ज्यादा या कम सवाल पैदा होता है कि अगर हम बिल्कुल नहीं लेवे तो कषाय से रहित हो जायेगे ?
उसका उत्तर है कि इसके लिए आत्मशक्ति की दर कार है जितनी हमारे में आत्मशक्ति है उतनी भी हम पूरी नही लगाते अगर पूरी भी लगा दे तो उतना ही उदयाभावी अय होगा जितनी गुणस्थानों के अनुसार आत्मशक्ति है। अगर उससे आगे आत्मशक्ति बढ़ती है तो गुणस्थान भी बदली हो जाता है । हरेक गुणस्थान में एक कम से कम (Mini) एक ज्यादा से ज्यादा (Maximum) शक्ति का उपयोग हम करते है। जैसे हमारी शक्ति १ से ४ तक है ज्यादा से ज्यादा उस गुणस्थान मे हम चार प्वाइंट तक शक्ति लगा सकते हैं। अगर हमारे पास ४ से १० तक शक्ति है तो हमारा गुणस्थान दूसरा होगा। एक छ । वर्ष का बच्चा एक पत्थर को नहीं हटा सकता है मात्र हिला सकता है परन्तु वही बड़ा होकर शक्ति का संग्रह करके उसको उल्टा सकता है। यही बात जीव की है चौथे गुणस्थान मे जितनी शक्ति है उतना ही कार्य कर सकता है। वहां पर जो राग द्वेपादि होते है वे उसकी शक्ति की कमी की वजह से होते हैं उसे उतना फल ग्रहण करना पड़ता है । तब उपचार से कहते हैं कर्म ने फल दे दिया वह जब अपनी शक्ति आत्मानुभव के द्वारा बढ़ा लेता है तब वही अप्रत्या स्थानावरण- - प्रत्याख्यानावरण रूप हो जाती है । क्योंकि अब उसमें इतनी शक्ति का संग्रह है कि यह तद् रूप फल नही लेता है। इस प्रकार से यहां पर भी जीव की स्वतंत्रता है फल कितना लेना है यह जीव की शक्ति पर निर्भर है । यही कारण है कि पंचास्तिकाय मे आचार्य ने लिखा है कि द्रव्य प्रत्ययों का उदय होने पर भी जीव भाव मोह रूपन परिणमन करें। अब फिर सवाल पैदा होता है कि क्या कर्म मे फलदान शक्ति है अथवा वह मात्र थर्मामीटर है । दमका
अनेकान्त
उत्तर है कि जैसे पृथ्वी में आकर्षण शक्ति है हरेक फल को या चीज को अपनी तरफ खेच लेती है । वैसे ही पुद्गल कर्म अथवा मोहनीय कर्म मे भी संसारी आत्मा को रागद्वेषरूप परिणमन करने में खिचाव की शक्ति है यह मानना जरूरी है क्योकि अगर ऐसा नही मानते हैं। तो सम्यक्दृष्टि आत्मा सामायिक कर रहा है, परिणामों को सम्भाल रहा है, स्वभाव की तरफ दष्टि करने का पूरा कर रहा है परन्तु अनेक प्रकार ऊल-जलूल विकल्प और विपरीत परिणाम लाख चेष्टा करने पर भी हो जाते है । इससे मालूम देता है कि अपनी शक्ति से खिचाव ज्यादा है तब वैसा परिणमन कर जाता है। जैसे चुबक और लोहा हैं । लोहा अगर भारी है और चुम्बक मे शक्ति कम है तो लोहे को नहीं खेच सकेगा । अगर सूई पड़ी होगी तो उसको बैंच लेगा एक प्रादमी एक आदमी का हाथ पकड़कर खींच रहा है वह भी उधर जाना चाहता है तब उस आदमी की और दूसरे आदमी की दोनो की शक्ति मिल कर खंचाव होगा | अगर वह नहीं जाना चाहता है और अपनी शक्ति को खेचाव से विपरीत दिशा में नया देता तो पहले आदमी की शक्ति में से दूसरे की शक्ति कम करने पर अगर पहले वाले मे ज्यादा शक्ति बचती है तो उतना खिंचाव होगा। मिध्यादृष्टि उस विचाव की तरफ जाना चाहता है अतः कर्मशक्ति और उसकी शक्ति एक दिशा मे काम करती है । सम्यकदृष्टि खिचाव की तरफ नही जाना चाहता अतः जितनी शक्ति उसने खिचाव के विरुद्ध मे लगाई उतनी कम होकर बाकी का कर्म की तरफ खिचाव हुआ । ऊपर-ऊपर के गुणस्थानों मे आत्मशक्ति बढ़ती जाती है अतः कार्य का खिचाव कम होता जाता है। यहां भी कर्म की वजह से उधर गया यह करणानुयोग का कथन है और अपनी आरमशक्ति की कमी की वजह से उधर गया यह अध्यात्म का कथन है। विचार किया जावे तो दोनों का एक ही अर्थ है। जीव की पूर्ण स्वतंत्रता नहीं है, इसका भी कारण आत्मबल की कमी है। दूसरे की बरजोरी नहीं है वह पुरुषार्थ बढ़ाकर आत्म-बल बढ़ा सकता है । अगर आत्मबन नहीं बढ़ाना है तो यह उसकी वजह कही जाएगी। आत्मबल भी मम से गुणस्थानों के अनुसार ही बढ़ता है।