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३२, वर्ष ४४, कि०१ है-'आत्मस्वभाव पर भाव भिन्नं ।'-जैसे रागादिक वास्तव में हमारे सेमीनार मुल सिद्धांतों, आगम वैभाविकभाव अनादि है वैसे ही वीतरागतारूप जैनधर्म कथानको और जैनाचार की पूष्टि में ही होने चाहिएऔर उसके सिद्धांतो का अस्तित्व भी अनादि है। विरोध मे नहीं । क्योंकि "नान्यथावादिनों जिनः'। हमारे
जब हम आज के कई जैन-वेत्ताओं को आगम के सेमीनार इतिहास या पुरातत्व को लेकर किन्हीं नए समीविपरीत जाते देखते है तब आश्चर्यचकित रह जाते हैं कि करणों के लिए नहीं हों--विवादों या भ्रमों के उत्पादक न या तो उन्हें जिनवाणी पर विश्वास नहीं या फिर वे अपने हों इसका पूरा ध्यान रखना चाहिए । जो लोग इतिहास को अधिक बुद्धिमान साबित करने के लिए भांनि-भांति के और पूरातत्व के आधार पर कुछ का कुछ सिद्ध करना नाटक रचते है । पोई इतिहास के नाम पर और कोई चाहें और जिनसे हमारे आगम कथानकों का मेल न बैठे परातत्व के सन्दर्भ से जिनवाणी को झुटलाने के असफल ऐसे लोगों से हमारा निवेदन है कि वे इति का हास अर्थात् प्रयत्न करते है-आचार से जो जैन का मूल प्रतीक है, बीते-समाप्त हए का हास (हास्य) न करें-हमारे आगम उन्हे कोई सरोकार नहीं । आज जगह-जगह सेमीनार होते सर्वथा सत्य है, उनकी ही पुष्टि हो। हैं, उनमें जैनागम, जैनाचार और जैन-सिद्धांतो की पुष्टि दिसम्बर, १९८८ में हमने 'ऋषभ और शिव एक में कितने होते है-यह विचारणीय है।
व्यक्तित्व' जैसे विचार के प्रसंग में जैन आगमानुसार हमने देखा है कई जैन सेमीनारो मे जैन और अजैन शिव-कथा को देकर ऋषभ से शिव की भिन्नता को विद्वानो को दूर-दूर से आते हुए मार्ग-व्यय, दक्षिणा आदि दर्शाया था-दोनो के स्वरूप को भिन्नता को स्पष्ट किया लेते हए, उनकी सेवा-सुश्रूषा होते हुए। कई विद्वान् था। यदि किसी भांति शोधकों की दष्टि (नो गलत है) अपना निबंध लाते हैं और वाच देते है। कई निबध तो
लोगों के गले उतर गई और ऋषभ और शिव दोनो मे पुराने और कई-कई सेमीनारो मे वाँचे 'हए होते हो तब महद अन्तर होने पर भी यदि उन्होंने दोनो को एक मान भी आश्चर्य नहीं । श्रोता सुन लेते हैं और प्रत्येक वाचन
लिया तो दिग्भ्रमित बहुत से जैनी शिव-भक्त बन जायंगे के बाद श्रोताओ को प्रश्नोत्तरों के लिए इतना समय भी
और जैन का घात होगा । हमारा विश्वास है कि कट्टर होने नही मिता जो समाधान हो सके । जब कि काफी समय ।
से शिव का ए पुजारी भी ऋषभ का उपासक नहीं बनेगा। मिलना चाहिए । फिर एक सेमीनार में एक ही विषय को
ऐसे ही एक शोध अभी सामने आया है पावं को छुआ जाना चाहि।, आदि ।
___ व्रात्य सिद्ध करना । यह कहां तक सही हो सकता है ? यदि सेमीनार आगम-कथन की पुष्टि की दृष्टि से हो
पर प्रसिद्ध कोशकारो ने 'व्रात्य' शब्द को सस्कारहीन, और आयोजक लोग किसी एक विषय को महीनो पूर्व
पतित, भील आदि के रूपो में माना है। फिर भी येन-केन निर्धारित कर संभावित निमंत्रित विद्वानो को विषय सुझाए
प्रकारेण र दि पाव को व्रात्य मान भी लिया जाय और और महीनो पूर्व सभी निमत्रित विद्वान परस्पर के निवधो
ये भी मान लिया जाय कि कोशकागे ने ईष्यावश व्रात्य का विधिवत् पारायण कर एक-दूसरे के विचारो मे
शब्द के अर्थ को हीन रूप में दर्शाया है। तब भी इससे सामजस्थ बिठालें-और आगमानुकूल विषय का निर्धारण जैन की अनादिता या पाश्र्व के व्यक्तित्व मे क्या फर्क पड़ता कर ले--तब कही सेमीनार बुलाने का उपक्रम हो, तब
है? फिर यह भी दखा जाय कि व्रात्य शब्द किस जनशास्त्र
मे व्रती या पार्श्व के लिए आया है? हमारे शास्त्रो मे कुछ फल समक्ष आ सकते है । आयोजक चाहे तो निबंध
व्रात्य शब्द है भी या नहीं? हमने तो कही देखा नही। महीनो पूर्व मगाकर टकित कराकर विद्वानो को भेज सके
हमे यह इष्ट है कि जो भी विचारणा हो अपने वर्ततो विचारणा का कार्य सहज हो सके। ऐसा न होने से
मान-रूप और आचार विचार को जैनानुरूप ढालने के लिए वर्तमान कई सेमीनारो का फल अधूरा या विपरीत भी हो
सिद्धांतो के कथनो को पुष्टि के सन्दर्भ म ही हो-किसी सकता है। कई-कई बार तो श्रोता भ्राति मे भी पड जाता
आगम काट-छाट मे या दिग्भ्रमित करने मे न हो। हमारे है कि हमारे ग्रागम-कथा सत्य है या इन सेमीनारो म
विचार किसी विरोध मे नहीं अपितु आगम-रक्षण में हैं। प्रगट विचार सत्य है।
प्राशा है सोचेगे।
-सम्पादक