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जरा सोचिए !
क्या प्रभिनन्दन का यही तरीका है ?
जैसे वाचना परीषह विजयी होने में मुनि स्वयं नहीं मांगते, चन्दे से निर्मित आहारादि ग्रहण नहीं करते वैसे ही ज्ञानी होने के कारण विद्वान भी स्वयं याचना नही करते और पर-याचना द्वारा दूसरों से अपने लिए एकत्रित द्रव्य को ग्रहण भी नहीं करते ।
मला, जिस ज्ञानगुण के कारण मुनि अपने साधु पद जैसी पंचम श्रेणी में रहते भी अपनी गणना चतुर्थ परमेष्ठी ( उपाध्याय) के रूप में पाते है, उस ज्ञान की महिमा को हीन कैसे माना जा सकता है ? ज्ञानी तो याचना नहीं करता वह तो उपाय परमेष्ठी की भांति अपने ज्ञानद्वारा याचकों की झोली भरने का काम हो करता है और पूज्य पं० फूलचन्द जी ने जीवन भर यही किया है।
हमें हार्दिक वेदना हुई जब हमने एक पत्र मे प्रकाशित 'श्री पं० फूलचन्द जी सि० शास्त्री का अभिनन्दन' शीर्षक से ऐसी सूचना देखी जिसमे एक लाख रुपयों की राशि संचित कर उन्हें समर्पित करने को लिखा परन्तु माथ में दातारों से राशि देने की अपील उन्हें यह प्रलोभन देकर की गई है कि तारों के नाम की सूची विभिन्न जैन पत्रों में प्रकाशित कर दी जाएगी। यह पर खेद हुआ क्योंकि ऐसा इस प्रकार से करना न तो अभिनन्दन करने वालो के लिए शोभास्पद रहा और न जिनका अभिनन्दन किया जा रहा है उनके लिए उपयुक्त रहा। पंडित जी को अभिनन्दित कर राशि देना तो उचित है परन्तु अच्छा तो यह होता कि राशि इकट्ठी कर उनको अभिनन्दन के समय सबकी या किसी सस्था की ओर से भेट की जाती। जब इतने बर्ष कल ही चुके थे, अभी तक यह कार्य नहीं किया जा सका था तब एक-दो मास और निकल जाते । पंडित जी को भेंट करने को इस प्रकार पत्रो मे पंगा इकट्ठा करने की अपील निकलवाना निदनीय है। यह पंडित जी के उस्कारों, उनकी अपावृति और ज्ञानगुण के सर्वधा विपरीत है।
आश्चर्य है कि उक्त रूप से अभिनन्दन व द्रव्य भेंट करने का निश्वय जयपुर पचकल्याणक प्रतिष्ठा के अवसर पर उन मुमुक्षुओ द्वारा हुआ जिनकी प्रतिष्ठा की जड़ो मे पंडित विद्यमान है और जिनके प्रयत्नों से मुमुक्षु समाज
प्रकाशित है। यदि तनिक भी कृतज्ञता का भाव होता तो ये लोग पंडित जी की रात को अपने हों याचनावृत्ति के बिना भी सहज ही दे सकते थे ।
हमें वेद इसलिए हुआ कि हमारे मन में पंडित जी के प्रति अत्यन्त सम्मान है, उनके उपकारों के प्रति अत्यन्त कृतज्ञता का भाव हैं। उनकी उम्र की हो चुकी है। इस अन्त समय में उनको भेंट करने की राशि की अपील इस प्रकार खुले रूप में निकालना अपमानजनक और उनके नाम से भिक्षावृत्ति है ।
देखा जाय तो मुमुक्षुओ के प्रति पंडित जी के ऐसे अगणित उपकार हैं जिन पर लाखों मुमुक्षुओं और मुमुक्षु मण्डलों की समस्त चल अचल संपत्ति निछावर कर दी जाय तो भी थोड़ी है। हमें दुख तब शायद न हुआ होता जब ऐसा उपक्रम 'मरणोपरान्त' हुआ होना क्योंकि आज मरणोपरांत ऐसे उपक्रमोंकी परिपाटी चल पड़ी है और लोग [अ०] महावीर व कुन्दकुन्द के बाद भी उनके नाम पर आज चन्दा चिट्ठा कर उनकी कीर्ति भुनाने में लगे हैं, आदि ।
हम तो श्रद्धेय पुण्य पडित जी का उनके जीवन में सम्मान करते रहे है और करते हैं। उनकी अयाचीकवृत्ति, परोपकारिता और निकिता हमे प्रेरणादायी रही है और रहेगी। उनके चरणो मे सादर नमन ।
कुछ शोध और सेमिनार
जब हम मानकर चल रहे हैं कि हम अनादि हैं श्रीर हमारा वीतराग धर्म-सिद्धांत अनादि है तब यदि कोई हमे और हमारे धर्म को अन्य किन्ही गाधनों से किसी खास निधन काल (४-६ हजार वर्ष पूर्व) का सिद्ध करने का प्रयास करे अथवा हमारे वीतराग देवों का रामो देवीदेवताओं से एकत्व सिद्ध करने का प्रयत्न करे तो हम उसे बुद्धिमान न कहेंगे और न हम पुद्गलपिडों की खोज के माध्यमों से अपने और अपने अनादि धर्म को प्राचीन या नवीन सिद्ध करने को हो महत्व देंगे। भला अनादित्व मे प्राचीनत्व या नवीनत्व कैसा और वीतरागत्य मे सरागत्व फेस? हमारे तीर्थंकरों ने छह द्रयों को और उनमे होने वाले परिवर्तनों को अनादिनिधन और अपने-अपने रूपों मे भिन्नस्वभाव और स्वत माना है और स्पष्ट क