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प्रमाणसमुच्चय में कहा है-'योगिनां गुरुनिर्देशाद् क्रियावद् गुणवत् समवायिकारणं द्रव्यलक्षण । व्यतिभिन्नार्थ मात्रदक्' अर्थात् योगियों के गुरुनिर्देश
(वैशे० १।११५) (अर्थात् आगम उपदेश के) बिना पदार्थमात्र का अवबोष
दिक्कालावकाशं च कियावभ्यो वैधात् निष्किहो जाता है ? इसके निषेध में प्रकलङ्कदेव ने कहा है कि याणि । एतेन कर्माणि गुणाश्च व्याख्याताः निः क्रिया:"
(वैशे० ५।२।२१-२२) यह कथन ठीक नहीं है ? अक्षं अक्ष प्रति वर्तते अर्थात् प्रक्ष
मात्मन्यात्ममनसोः सयोगविशेषात् आत्मप्रत्यम्" प्रक्ष के प्रति जो हो, उसको प्रत्यक्ष कहते हैं और योगियों
(बशे० ९ ११) के अक्ष (इन्द्रिय) जन्य ज्ञान नहीं हैं, क्योकि योगियों के
आत्म सयोग प्रयत्नाभ्यां हस्ते“कर्म (वैशे० ५।१।१) इन्द्रियों का अभाव है ? बोदो के द्वारा कल्पित कोई योगी
व्यवस्थातः । शास्त्रसामर्थ्याच्च नाना ही नहीं हैं। क्योंकि विशेष लक्षण का प्रभाव है तथा
(वैशे० ३।२।२०-२१) निर्वाण प्राप्ति मे सबका अभाव बौद्ध मानते हैं ।
अग्नेरूद्धज्वलन वायोश्चतिर्यपवनम् अणुमनसोश्चाद्य अन्य मतों के लक्षण देते हुए अकलङ्कदेव ने प्रमाण
कर्मत्येतान्य दृष्ट कारित नि उपसर्पणमपसर्पणमसितपीत समुच्चय की पंक्ति 'कल्पनापोढं प्रत्यक्षं' को उधृत किया
संयोगाः कायान्तरसयोगश्चेति अदृष्टकारितानि है।" इस प्रकार अकलङ्क ने दिङ्नाग के ग्रन्थो का सम्य
(वैशे० ५।२।१३।१७) गवलोकन किया था, इसकी पुष्टि होती है ?
प्रयत्न योगपद्यात् योगपनाचक' मन:(वैशे० ३।२।३) न्यायसन-न्यायदर्शन के अनुसार दुःखादि की
उत्क्षेपणमवक्षेपणमाकूञ्चत प्रमारण गमनमिति निवत्ति होना मोक्ष है ? इसके समर्थन में अकलङ्कदेव ने कर्माणि" (वैशे०१७) म्यायसूत्र का एक सूत्र उद्धत किया है-"दुःखजना - ऋक्संहिता-ऋग्वेद दशम मण्डल में सबससे प्रवत्तिदोषमिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये तदनन्तराभान्निः कहा गया है-'पुरुष एवेदं सर्व यदभत यच्च भाव्यं"
माधिगमः" अर्थात दुःखजन्म प्रवृत्ति दोष और मिथ्या अर्थात् जो कुछ हो चुका है और आगे होगा, वह सब ज्ञान का उत्तरोत्तर अपाय हो जाने पर मोक्ष की प्राप्ति परुष रूप । होती है।"
___ इसके विरोध में अकलङ्कदेव ने कहा है कि उक्त प्रत्यक्ष के अनगमतों के लक्षण मे भी न्यायसूत्र को प्रकार की कल्पना कर लेने पर यह वध्य और घातक है, उधत किया है-'इन्द्रियार्थमान्निकर्षोत्पन्न ज्ञानमव्य
यह भेद नही हो सकता । चेतनशक्ति (ब्रह्म) का ही यदि पदेश्यमन्यभिचारि व्यवसायात्मक प्रत्यक्ष' अर्थात् इन्द्रिय सारा परिणमन माना जाता है तो घट, पट आदि रूप से और अर्थ के सन्निकर्ष से उत्पन्न होने वाले अव्यपदेश्म,
दृष्टिगोचर होने वाले सारे जगत् का लोप हो जायगा निर्विकल्पक, अव्यभिचारी प्रो. व्यवसायात्मक ज्ञान को ।
और ऐसा मानने पर प्रत्यक्ष विरोध भी आता है तथा प्रत्यक्ष कहते।"
प्रमाण और प्रमाणाभास का भेद भी नहीं रहेगा इत्यादि। योगभाष्य-योगदर्शन में पातजलयोगदर्शन पर
मैत्रायणोपनिषद-तत्त्वार्थवार्तिक में 'अग्निहोत्रं सभाग्य मिलता है। तत्त्वार्थवार्तिक में रूप शब्द के
जुहुयात् स्वर्गकामः' अर्थात् स्वर्गकामी अग्निहोत्र यज्ञ भनेक अर्थ बतलाते समय एक अर्थ स्वभाव भी बताया
करें, मैत्रायणोपनिषद् के वाक्य का कर्ता की असंभवता तथा उसके प्रमाणस्वरूप योगभाव्य का चतन्य पुरुषस्य के आधार पर खण्डन किया गया है।" स्वरूपं वाक्य उद्धृत किया गया है। यहां रूप का अर्थ मनस्मति-तत्त्वार्थवार्तिक के आठवें अध्याय के स्वभाव है।
प्रथम सूत्र की व्याख्या में मनुस्मृति के 'यज्ञार्थ पशवा वैशेषिकसत्र-तत्त्वार्थबार्तिक मे अनेक स्थान पर
सष्टा: स्वयनेव स्वयंभवा" इस वाक्य का खण्डन किया वैशेषिक सूत्र उद्धृत किए गए है? जैसे
गया है तथा इस हेतु अनेक प्रमाण" दिए गए हैं। तत्त्व भावेन व्याख्यातम" (वैशे० ७२।२८) ___ भगवदगीता---अवधिज्ञान आत्मोत्थ होने से परोक्ष आत्मेन्द्रियमनोऽर्थसन्निकर्षाद्यन्निष्पद्यतेतदन्यत्"। नही है, इसके समर्थन मे भगवद्गीता का यह पद्य उद्धत
(वैशे० ३।१८) किया गया है