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तत्त्वार्थवार्तिक में प्रयुक्त ग्रंथ
डॉ. रमेशचन्द्र जैन, बिजनौर अकलहकदेव बहुश्रुत विद्वान थे। उन्होने तत्त्वार्थ- व्याख्यानतो विशेषप्रतिषत्तिवहि सन्देहादलक्षणम्" वातिक ग्राथ सैकड़ों ग्रन्थो के आलोडन विलोडन के बाद (पा० म० पस्पशहिक सू०६) लिखा था। तत्त्वार्थवार्तिक मे उद्धृत अथवा निर्दिष्ट निमित्त का ण हेतुषु सर्वासां प्राय: दर्शनात (पा.म. तत्तत् ग्रन्थों के अश इस बात के प्रमाण है कि अकलङ्कदेव २/३/२३) का ज्ञान बहन विस्तृत था। उनके तत्त्वार्थवार्तिक मे जिन- जेनेत व्याकरण- अकल डूदेव ने पूज्यपाद के जिन ग्रन्थों का उपयोग हुआ है, उनका विवरण यहां दिया जैनेन्द्र व्याकरण के अनेक सूत्र उद्धृत किए हैं ? वे जैनेन्द्र जा रहा है
व्याकरण के अच्छे जाना थे। तत्त्वार्थ वार्तिक में जैनेन्द्र पातञ्जल महाभाष्य--अब लकदेव को महा
व्याकरण के उद्धरण इस प्रकार हैभाष्यकार पतञ्जलि की शैली प्रिय थी। उन्होने तत्त्वार्थ
करणाधिकरण यो" (जैने० २/४/६९) वार्तिक में पतञ्जलि के मत की आलोचना करके उसमें
युड् व्याबहुलम् (जने० २/३/६४) अनेकान्त को घटित किया है। साथ ही स्थान-स्थान पर
सर्वादि सर्वनाम" (जने० १/१/३५) महाभाष्य से अनेक उदाहरण और पक्तियां ली है--
टिदादि (जैने० (१/१/:३ अनन्तरस्य विधिर्वा प्रतिषेधो वा'षा०म० १/२/४७)
ज्वलितिकसंताण्ण: जैने०७२/१/११२ गौणमुख्ययोर्मुस । संप्रत्यग.' (पा० मा० /३/८२)
अपादाने अहीयबहोः" (जने वा०४/२/५०) अभ्यहितम् पूर्वम् निपतति (पा० म० २/२/३४) आद्यादिभ्य उपसख्यानम् (जैने०४/२/४९)
अन्तरेणापि नाप्रत्ययं गुणपधानो भवति निर्देशः' समानस्य तदादेश्च"ज. बा० ३/३/३५) (पा० म० २/४/२१:
साधनं कृता" (जैने० १/३/२६) द्वयेकयोः (पा. सू०१/४/२२)
मयूर व्यंसकादित्वा द्वा८ (मयत्यसकादयश्च जमे. विशेषण विशेष्येण (पा सू०२/१५७) समुदायेषुहि प्रवृत्ताः शब्दा अवयवेष्वपि वर्तन्ते'
समानस्य तदादेश्च" (जैने. वा० ३/३/३१) (पा०म० पस्पशाहिक) दष्टि साम्नि च जाते च अण् डिद्वा विधीयते'
स्वार्थे को वा(जै०३/१/६१) (प. महा०२/४/७)
देवता द्वन्द्वे" (जने०४/३/१३८) . अवयवेन विग्रहः समुदायो वृत्त्यर्थः (पा. म० आनङ् द्वन्द्वे" (ज० ४/११३८) २/२/२४)
सामीप्येऽधेध्युपरि" ५/३/५ वर्णानुपलब्धी चातदर्थगते" (प.० म• प्रत्याहा ५) तदस्मिन् (जैने० ३/ /५८)
व्याख्यानतो विशेष प्रतिपत्तिनंहि सन्देहा दलक्षणम" अपादाने ऽहीयरुहो" (जने० ४/३/५०) (पा० महा० प्रत्या० सू० ६)
आद्यादिभ्य. उपसख्यानम्" (जने. ४/२/४९) द्वयोयोरिति ग्रहणमन्यार्थमुक्तम्" (पा० म. १/१/
अहोयरहो:" (जने० ४/३/५०) २२) दुतायो तपरकरणे मध्यमबिलम्बितयोरूपसख्यानम१४
द्वन्द्वसु (जने० १/३/६८) (1०म० १/१/६०)
अल्पातरम्" जैने० १/३/१००) नजिवयुक्तमन्यसदृशाधिकरणे तथा पथंगति' विशेषणं, विशेव्येण (जैने० १/३/१२) (प० म० ३/९/१२)
ह्वतः" (जने ० ३/९/६१) गुणसन्द्राबो द्रव्यम्" (पा० म०५/१/११९)
द्रव्येभव्ये २ (जैने० ४/१/१५८)