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निमित्ताधीन दृष्टि
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उसी पर निर्भर है। इसलिए कार्य का होना न होना प्रबलता होती है तो बाहरी निरपयोगी पदार्थ में भी यह निमित्ताधीन नही रहा पर-तु इसके अपनी समझदारी के अपने कार्य का निमित्तपना बना लेता है जैसे पत्थर की अधीन रहा । इसलिए चेतन के बारे में विचार करते हुए ठोकर लगने पर यह विचार करना कि जो देखकर नही पुद्गल की स्थिति को देख कर वैसा नही समझना चलता उसको ठोकर लगती है इसी प्रकार अगर मैं मावचाहिए। क्योकि जीव मे ज्ञान शक्ति है इसलिए निमित्त धान नही रहता तो कषाय की ठोकर खानी पड़ती है। बनाना, नही बनाना, किस कार्य के लिए अवलम्बन लेना यहां पर भी उपादान की सभी तरह से स्वतन्त्रता कायम सभी कुछ उसी पर निर्भर है। परन्तु पुद्गल को वैसा रहती है। निमित्त का, वैसे कार्य के लिए निमित्त मिल जाए, या अब सवाल आता है आठ कर्मों के निमित्तपने का। मिला दिया जाए तो वह कार्य हो जाता है परन्तु उपादान कोई कह सकता है कि यहा तो जीव पराधीन जरूर मे तद्परिणमन की शक्ति होनी चाहिए । इसी वजह होगा । इसी पर विचार करना है । आठ कर्मों में कुछ से कार के साथ पेट्रोल का निमित्त उसी ढग से, उसी रूप से पुद्गल विपाकी है उनका निमित्त नमैत्तिक सम्बन्ध मिला दिया जाता है तो वह कार्यरूप परणित होती है अथवा पुद्गल का पुद्गल के साथ है अत: उनके उदय काल में कहना चाहिए कि पेट्रोल का अवलम्बन पाकर कार अपनी शरीरादि की अथवा संयोगो की वैसी स्थिति होती है। उपादान शक्ति से चली। जीव के बारे मे पर का अवलम्बन विचार उनका करना जो जीव विपाकी है जिनका फल लेकर परिणमन किया ऐसा मानना है जबकि पुद्गल में अव से जीव के ज्ञान दर्शनादि गुणों का घात होता है। मुख्य लंबन पाकर चाहे वह स्वतः मिले या किसीके मिलानेसे मिले रूप से चार घातिया कर्मों का विचार करना है। उन तब पूदगल उस कार्य रूप में परिणमन करता है। यही बात चारों मे से भी मोहनीय कर्म जो दर्शन जोहनीय और सभी पुद्ग्लादि के साथ लागू है। सूर्य की गर्मी पाकर समुद्र चारित्र मोहनीय के भेद से दो प्रकार का है वही समूचे का पानी भाप रूप परिणमन कर रहा है, यहां किसी अन्य कर्मों की जड़ है वही ससार का कारण है । मुख्य रूप से ने निमित्त को नही जुटाया परन्तु कार के चलने मे पेट्रोल उसी का प्रात्मा के साथ किस प्रकार का निमित्त नमत्तिकका सम्बन्ध किसी अन्य ने जुटाया वह अवलम्बन पाकर पना है यह विचार करना है । एक बात तो यह समझ चलने रूप परिणमन हुआ।
लेनी चाहिए कि हरेक कर्मों का सम्बन्ध अपने अपने कार्यों ___अब फिर एक सवाल होता है कि जब उपादान को के साथ अलग-अलग है । आत्मा के चारित्र और दर्शन से उस रूप परिणमन करना है तो वे सब निमित्त मिलेंगे ही मोह का सम्बन्ध है अन्य किसी भी कार्य से इस कर्म ही। ऐसा मानने पर भी एक बात तो निश्चित हो गई कि का सम्बन्ध नहीं है । करणानुयोग का कथन भी व्यवहार कार्य होने में निमित्त का अबलम्बन है चाहे बात को उपा-दृष्टि से किया गया है अतः सब जगह कर्म का कर्तापने दान की तरफ से कहा जावे अथवा निमित्त की तरफ से। की भाषा मे ही कथन है उस उपचार कथन को हमने
क्या हम बाहरी निमित्तों को जुटा सकते है यह एक वास्तविक मान लिया है परिणमन जीव ने किया, कहा गया सवाल खड़ा होता है। उसके बारे में विचार करते है कि कर्म ने करा दिया और हमने भी यही मान लिया। यह द्रव्य दृष्टि से तो यह कार्य जीव का नहीं है और जीव नहीं समझा कि यह व्यवहार दृष्टि का कशन है। सर्वार्थ यह कार्य कर भी नहीं सकता। परन्तु पर्याय दृष्टि में यह सिद्धि में पूज्यपाद स्वामी ने उदय की परिभाषा करते हुए अपने योग उपयोग का जिम्मेदार है और उस योग उप- यह कहा है कि फल की प्राप्ति वह उदय है यानि जितना योग के निमित्तपने से कार्य सम्पादन होते हैं, इसलिए इस उदय है उतनी फल की प्राप्ति है ऐसा नहीं है परन्तु दृष्टि से इसका जुटाने वाला और हटाने वाला भी बताया जितनी फल की प्राप्ति है उतना उदय है। तब सवाल है और इस दृष्टि से इस बात का उपदेश दिया है, नहीं आता है कि बाकी फल का क्या हुआ जो हमने नहीं तो उपदेश निरर्थक हो जाएगा । जब इसके भीतर ज्यादा लिया। उसका उत्तर है कि उसका उदयाभावी क्षय