Book Title: Anekant 1991 Book 44 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 24
________________ २२, वर्ष ४४, कि० १ अनेकान्त प्रस्तुत किये जिससे सम्पूर्ण समाज की आंखें खुल गयीं। भोगे बिना छुटकारा नहीं। संसार में जितने भी प्राणी जिससे समाज को एक नयी दिशा मिली। हैं सब अपने-अपने कार्यों के कारण दुःखी हैं। भगवान् महात्मा गांधी ने जो सत्य और अहिंसा की ज्योति महावीर ने बार-बार इसी बात को दुहराया है कि व्यक्ति जलाई थी, उसकी पृष्ठभूमि मे भगवान् महावीर और को अपने कर्मों का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है । जो बुद्ध के नैतिक आदर्श रहे है। जैसा करता है उसे वैमा ही फल भोगना पड़ता है । कहा भगवान् महावीर ने हमेशा पशुओ की हत्या और भी गया है जो जैसा करे वो वैसा भरे । व्यक्ति जैसा यज्ञ आदि धार्मिक कार्यों का निषेध किया था। प्राणियो विचार करेगा वह वसा बन सकता है वह अपने भाग्य का की हिंसा करना पाप है इसलिए उन्होने अहिंसा का विधाता स्वय है। इसलिए निर्ग्रन्थ प्रवचन में ईश्वर को प्रचार किया और उन्होन अहिंसा के बारे में इस प्रकार जगत का कर्ता स्वीकार नही किया गया है। तप आदि प्रकार महावाक्य कहे है अच्छे कर्मों द्वारा आत्मविश्वास की सर्वोच्च अवस्था को समया सव्वभूएसु, सत्तु-मित्तेसु वा जगे। ही ईश्वर बताया गया है। जैन धर्म की भारतीय दर्शन पागाइवायविरई, जावज्जीवाए दुक्कर ॥ को यह बहुत बड़ी देन है। ऐसी स्थिति मे जो लोग जाति अर्थात सभी जीवो के प्रति चाहे वह शत्रु हो या मित्र तिट के कारण कम के बन्धन मे फसकर इंसान समभाव रखना आर जीव हिंसा का त्याग करना बहुत समझना ही छोड़ देते थे, उनके लिए भगवान महावीर ही कठिन है। का सिद्धान। कितना प्रेरणादायक रहा होगा और उन्हे सत्य होते हुए भी, कठोर वाणी बोलने वाले के लिए तत्कालीन मिती समाज के खिलाफ कितना संघर्ष करना भगवान महावीर ने हिंसा कहा है पड़ा होगा। कर्म सिद्धान्त को ध्यान में रखकर वेदों को तहेव फरसा भासा गुरुभूओष धाइणी। मानने वाले ब्राह्मणों को लक्ष्य करते हुए भगवान् महासच्चा वि सा न वत्तवा जओ पावस्स यागमो॥ वीर ने कहाअर्थात् दूसरो को दुःख देने वाली कठोर भाषा यदि उदगेण जे सिद्धि मुदाहरति; साय च पाय उदगं कुसत्ता। सत्य भी हो तो उग नही बोलना चाहिए, इससे पाप का उदगस्स फासेण सिया य सिद्धि, सिज्झिसुपामा बहवे दगसि । आश्रव होता है। भगवान् महावीर ने सच्चे त्यागी का ____ अर्थात् सुबह और शाम स्नान करने से यदि मोक्ष लक्षण बताते हुए लिखा है मिलता होता तो पानी में रहने वाले सभी जीव-जन्तुओं जे य कसे पिये नोए, लद्धे वि चिट्ठि कुब्बइ। को मोक्ष मिल जाना चाहिए। इसी को और स्पष्ट करते साहीणे चयई भोए, मेहुचाई ति बुच्चई ।। हुए आगे भी कहा गया हैवत्थ गंधमलंकार, इत्थीओ सयणाणि य । न वि मुंडिगण समणो न ओंकारेण वंभणो। अच्छंदा जे न भुजति, सो चाई त्ति बुच्चई ।। ण मुणी रण्णवासेण, कुसचीरेण ण तावसो।। अर्थात् जो सुन्दर और प्रिय भोगों को पाकर भी अर्थात सिर मुंडा लेने से कोई श्रमण नहीं होता भोम् उसकी ओर से पीठ फेर लेता है और सामने आये हुए , का जाप करने से ब्राह्मण नही होता, जंगल मे रहने से भोगो का त्याग कर देता है, ही त्यागी है। वस्त्र, गध, मनि नही होता और कुश के वस्त्र पहनने से तपस्वी नहीं अलकार, स्त्री और शयन आदि वस्तुओं का जो लाचारी होता। तो फिर किससे होता हैके कारण भोग नहीं कर सकता उसे त्यागी नही कहते। कम्मुणा बभणो होई, कम्मुणा होई खत्तिओ। आगे भी कहते हैं-- वइस्सो कम्मुणा होई, सुद्दो होइ उ कम्मुणा ।। जमिणं जगई पुढो जगा, कस्मेहि लुप्यति पाणिणो । अर्थात् कर्म (आचरण) से मनुष्य ब्राह्मण है और कर्म सयमेव कडेहि गाहई, णो तम्स मुच्चेज्जडपुठ्ठय ॥ से ही क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र होता है। अर्थात् अच्छा या बुरा जैसा भी कर्म हो उसका फल (शेष पृ. ३० पर)

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